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Home फिल्म/वेब रिव्यू

ओल्ड रिव्यू-एंटरटेनमैंट का बैंड ‘बजाते रहो’

Deepak Dua by Deepak Dua
2013/07/27
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
ओल्ड रिव्यू-एंटरटेनमैंट का बैंड ‘बजाते रहो’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

इस फिल्म के आने से पहले इसके कलाकार ही यह बात कह रहे थे कि इसे देखते हुए आपको ‘खोसला का घोसला’ याद आ सकती है। उनकी इस ईमानदारी की तारीफ होनी चाहिए क्योंकि अपने मूड और स्वाद में यह फिल्म ‘खोसला का घोसला’ का ही एक एपिसोड नज़र आती है। वैसे कुछ लोगों को इसमें ‘स्पेशल 26’ की झलकियां भी दिख सकती हैं लेकिन वे काफी कम हैं। ‘खोसला का घोसला’ की ही तरह इसमें भी दिल्ली की कहानी है। एक आम परिवार के साथ धोखा होने की कहानी है और फिर उस परिवार के उठ कर बदला लेने की कहानी है। और यहां भी यह सब हो रहा है कॉमेडी के रैपर में लपेट कर।

सब्बरवाल (रवि किशन) के स्कूल, बैंक, डेयरी जैसे कई धंधे हैं लेकिन सबमें कोई न कोई घपला है। अपने ही बैंक में घोटाला करके वह उसका इल्ज़ाम मैनेजर पर लगा देता है। सदमे से मैनेजर की मौत हो जाती है और तब उनकी पत्नी (डॉली आहलूवालिया) और बेटा (तुषार कपूर) अपने दोस्तों के साथ मिल कर सब्बरवाल का बैंड बजाने में जुट जाते हैं। अंत में ये लोग सब्बरवाल से अपना पैसा वापस ले पाने में कामयाब होते हैं। यह सब कैसे होता है, इसे देखना दिलचस्प है।

फिल्म की कहानी में नयापन भले ही न हो लेकिन इसमें चुटीलापन ज़रूर है। कैसे एक रईस और फ्रॉड इंसान को कुछ आम लोग अपनी चालाकी और हिम्मत से बार-बार चोट पहुंचाते हैं, इसे देख कर एक आम दर्शक को इसलिए मज़ा आएगा क्योंकि घपलों-घोटालों का मारा वह दर्शक खुद को इससे रिलेट कर सकेगा। फिल्म हर पल यह उत्सुकता जगाती है कि आगे क्या होगा, कैसे ये लोग सब्बरवाल का बैंड बजाएंगे और उससे 15 करोड़ रुपए वापस लाएंगे। लेकिन यहां थोड़ी-सी दिक्कत इसकी स्क्रिप्ट के साथ है जिसमें तीखेपन की कमी साफ झलकती है। इस किस्म की कहानी में इतने सारे पंच भले ही न हों कि दर्शक हंसते-हंसते पेट पकड़ लें लेकिन इतना मसाला तो होना ही चाहिए कि वे बार-बार ठहाके लगा सकें और इस मोर्चे पर यह फिल्म हल्की पड़ती नजर आती है। कहीं-कहीं इन लोगों की हरकतों में कुछ ज़्यादा ही ‘फिल्मीपन’ झलकता है लेकिन उसे अनदेखा किया जा सकता है। हां, थोड़ा और नींबू-मिर्ची छिड़का जाता तो यह फिल्म कहीं ज़्यादा चटपटी और तीखी बन सकती थी।

डॉली आहलूवालिया को ‘विकी डोनर’ जैसा बढ़िया रोल तो नहीं मिला लेकिन हर सीन में उनका प्रभाव ज़बर्दस्त रहा है। तुषार कपूर अपनी सीमित रेंज के बावजूद जंचे। विनय पाठक को भी हल्का ही रोल मिला। रणवीर शौरी जब-जब पर्दे पर आए, बाकियां पर भारी पड़े। रवि किशन का काम तो अच्छा रहा लेकिन अपनी बोली से वह पंजाबी नहीं लगते। तुषार के छोटे भाई कबूतर के किरदार में दिखाई दिए हुसैन साद में भरपूर आत्मविश्वास नजर आता है। बृजेंद्र काला ने एक बार फिर साबित किया कि वह कमाल के कलाकार हैं। विशाखा सिंह खूबसूरत लगीं।

फिल्म का संगीत बहुत ज्यादा असरदार न होते हुए भी ‘मैं नागिन डांस नचणा…’ और ‘खुराफाती अखियां…’ अच्छे लगते हैं। दिल्ली शहर की गलियों और बाज़ारों को बड़ी ही सच्चाई के साथ दिखाती है यह फिल्म। बड़ी बात यह भी है कि फिल्म में कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जो आपको अखरे। परिवार के साथ बैठ कर इस फिल्म को एक बार तो देखा ही जा सकता है।

अपनी रेटिंग-तीन स्टार

(मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र में 27 जुलाई, 2013 को प्रकाशित हुआ था)

Release Date-26 July, 2013

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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