-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
शेक्सपियर की कालजयी कृति ‘रोमियो एंड जूलियट’ को दुनिया भर के कई फिल्मकार अपने-अपने तरीके से बना-दिखा चुके हैं। हिन्दी फिल्मों में भी इस नाटक के ढेरों रूपांतरण बने हैं लेकिन अगर यह कहा जाए कि यह फिल्म इस दुखांत नाटक के सबसे ज्यादा करीब है तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। कोई छह बरस पहले अपनी पहली फिल्म ‘दिल दोस्ती एट्सेट्रा’ के बाद डायरेक्टर मनीष तिवारी ने इस फिल्म में सचमुच काफी लंबी छलांग लगाई है।
‘रोमियो एंड जूलियट’ के दो प्रतिद्वंद्वी परिवार कैपुलेट्स और मोंटेग्यूस यहां कश्यप और मिश्रा है और वेरोना शहर की जगह है वाराणसी यानी बनारस। इन दो रेत माफियाओं की लड़ाई में एक मंत्री भी शामिल है, पुलिस वाले भी और लाल सलाम का नारा गुंजाते कुछ नक्सली भी। इन सब की लहराती बंदूकों के साये तले मिश्रा के बेटे राहुल और कश्यप की बेटी बच्ची के बीच प्यार का अंकुर फूटता है। लेकिन इनसे जुड़े ढेरों ऐसे किरदार हैं जिनके अपने-अपने हित हैं। इन दोनों को मिलाने और अलग करने में लगे लोगों की लाशें एक-एक कर गिरने लगती हैं।
जिस खूबसूरती से लेखकों ने इस कहानी में बनारस के रेत माफिया, राजनीति, पुलिस और नक्सलियों को जोड़ा है, वह सचमुच तारीफ के काबिल है। अपने मिज़ाज से कभी ‘इशकजादे’ तो कभी ‘ओंकारा’ के करीब जाती यह फिल्म दरअसल इंसानी फितरतों के अंदर झांकती है। प्यार, वासना, ईर्ष्या, दोस्ती, विश्वासघात, वर्चस्व कायम करने की इच्छा जैसी तमाम इंसानी खूबियों-खामियों को यह विस्तार से दिखाती है। लेकिन यह फिल्म कमियों से अछूती भी नहीं है। फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है इसकी लंबाई। कई जगह फिल्म बेवजह खिंचती-सी लगती है। कई सीन ऐसे हैं जिन्हें अगर निकाल बाहर किया जाता तो यह छोटी होकर न सिर्फ बंध जाती बल्कि और कस कर बांध भी लेती। अभी तो यह हालत है कि आखिरी के आध-पौन घंटे में आप अपनी सीट पर पहलू बदलते हुए कई बार यह सोचते हैं कि बाहर कब निकला जाए। फिल्म का कई जगह कुछ ज़्यादा ही साहित्यिक हो जाना भी इसकी रोचकता को कम करता है।
लेकिन इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जिसके लिए इसे देखा जाना चाहिए। पहले तो यही कि ‘रोमियो एंड जूलियट’ का ऐसा देसी और ईमानदार संस्करण अभी तक अपने यहां नहीं आया है। फिर जिस तरह से बनारस शहर, वहां के माहौल, वहां की जुबान और वहां के विभिन्न किरदारों को इसमें बुना गया है उससे यह फिल्म अपना एक वजूद कायम कर लेती है। प्रतीक बब्बर के काम में इतनी सफाई और गहराई पहली बार नज़र आई है। कह सकते हैं कि बतौर ‘अभिनेता’ यह उनकी पहली फिल्म है। नई अदाकारा अमायरा दस्तूर न सिर्फ बहुत प्यारी और मासूम लगी हैं बल्कि अपने किरदार के साथ पूरा इंसाफ करती नजर आती हैं। ऐसे कई सीन हैं जिनमें वह असर छोड़ती हैं। खासतौर से तब, जब वह क्लास रूम में जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ के कुछ छंद अलग-अलग स्वरों में पढ़ती हैं। प्रतीक और अमायरा के बीच की कैमिस्ट्री भी बढ़िया है। रवि किशन हर बार की तरह प्रभावी रहे। वैसे भी पूरब के किरदारों में वह काफी जंचते हैं। चौंकाती तो हैं राजेश्वरी सचदेव। बच्ची की सौतेली मां के रोल में उन्हें काफी वैरायटी दिखाने को मिली और वह कहीं भी चूकी नहीं। बच्ची की शादी के मौके पर उसे हल्दी लगाने के सीन में तो वह बिना कुछ कहे कमाल की एक्टिंग करती हैं। लंबे अर्से बाद दिखीं नीना गुप्ता भी खूब जंचीं। बाबा के रोल में मकरंद देशपांडे असरदार रहे।
फिल्म के गानों में झट से जुबान पर चढ़ने लायक भले ही कोई भी न हो लेकिन ये फिल्म के मिज़ाज को सूट करते हैं और जब आते हैं तो कहानी को और गाढ़ा ही करते हैं। एक बात सिनेमॉटोग्राफी की भी। बनारस के मूड को विशाल सिन्हा ने जिस कामयाबी से कैमरे में कैद किया है उसके लिए उनकी तारीफ होनी ही चाहिए। इस फिल्म की लंबाई कुछ कम होती और अंत में दोनों परिवारों को कहानी से एकदम बाहर न किया जाता तो यह ज़्यादा असरदार हो सकती थी।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र में 27 जुलाई, 2013 को प्रकाशित हुआ था)
Release Date-26 July, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)