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Home फ़िल्म रिव्यू

ओल्ड रिव्यू-‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’-सीरियस है मगर बोर नहीं

Deepak Dua by Deepak Dua
2013/06/14
in फ़िल्म रिव्यू
0
ओल्ड रिव्यू-‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’-सीरियस है मगर बोर नहीं
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

‘डॉक्टरी सिर्फ एक पेशा ही नहीं बिजनेस भी है…।’ विक्रम भट्ट के बैनर से आई इस फिल्म में डॉक्टर अस्थाना बने के.के. मैनन का यह संवाद न सिर्फ इस फिल्म की बल्कि दुनिया के सबसे पवित्र माने जाने वाले डॉक्टरी के पेशे की सच्चाई को भी सामने लाता है। अस्पतालों में इंसानी लापरवाही से किसी मरीज की मौत होना कोई नई और अनोखी बात नहीं है। अक्सर ऐसे मामले अदालतों तक भी पहुंचते हैं लेकिन आमतौर पर हो कुछ नहीं पाता। लेकिन इस फिल्म में सच की जीत होती है और गुनहगार को सज़ा भी मिलती है।

एक बच्चे अंकुर अरोड़ा का ऑपरेशन होना है लेकिन डॉक्टर उसका पेट साफ करना भूल जाता है। उसकी इस लापरवाही के चलते बच्चा पहले कोमा में चला जाता है और फिर मौत के मुंह में। डॉक्टर अपनी गलती को छुपाने में लग जाता है और उसका एक जूनियर सच का साथ देने में।

इस किस्म की रूखी कहानी जिसमें मनोरंजन, मसाले, मन को भाने वाली कोई चीज़ न हो, उसे लेकर बिना कोई तड़का लगाए उस पर फिल्म बनाना दुस्साहस का काम है और डायरेक्टर सुहैल तातारी की हिम्मत की दाद देनी होगी कि उन्होंने इस रूखे विषय में बिना कोई गैरज़रूरी मसाला डाले इसे पूरी ईमानदारी के साथ ट्रीट किया है। अब यह अलग बात है कि उनकी यह ईमानदारी और दुस्साहस उन्हें टिकट-खिड़की पर भारी पड़ने वाला है।

फिल्म का विषय भले ही ड्राई हो और उसका ट्रीटमेंट भी लेकिन यह फिल्म सीरियस तो है मगर बोर नहीं करती। मेडिकल प्रोफेशन की कमियों और खामियों को सामने लाने की डायरेक्टर की कोशिश पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। साथ ही उन्होंने वकालत के पेशे की गंदगी को भी हल्के से छुआ है। हालांकि अंकुर की मौत के बाद जो केस बनता है उसे जिस जल्दबाज़ी में निबटाया गया है वह इस फिल्म को हल्का कर देता है। और जिस तरह से अंकुर का केस लड़ रही वकील की सोच बदलती है, वह भी काफी फिल्मी-सा लगा है।

सुहैल पहले भी ‘समर 2007’ में एक गंभीर विषय को उठा चुके हैं लेकिन तब भी और अब भी वह बहुत ज़्यादा हार्ड-हिटिंग नहीं हो पाए जबकि विषय की मांग यही होती है कि जब आप चोट करें तो वह इतने ज़ोर से हो कि देखने वाला हिल जाए और यहीं आकर यह फिल्म कमज़ोर पड़ जाती है।

वकील बनीं पाओली डाम और डॉक्टर बने के.के. मैनन की एक्टिंग में गहरा असर दिखता है। अर्जुन माथुर और टिस्का चोपड़ा का काम भी अच्छा कहा जा सकता है। विशाखा सिंह तो ज़्यादा समय रोती ही रहीं। बाकी लोग साधारण रहे। बैकग्राउंड में बजता एक गाना ही थोड़ा ठीक लगता है।

अगर आप को गंभीर किस्म की फिल्में पसंद हैं, अगर सच्ची घटनाओं पर बनी फिल्में आपको भाती हैं तो यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। हां, मसाला मनोरंजन की इच्छा लेकर इसे देखने मत जाइएगा।

अपनी रेटिंग-ढाई स्टार

(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय किसी अन्य पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था।)

Release Date-14 June, 2013

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’Ankur Arora Murder Case reviewArjun Mathurkay kay menonpaoli damsohail tataritisca chopravishakha singhvisshesh tiwari
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