-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कुछ दोस्त हैं। स्कूल-कॉलेज के जमाने के। अलग-अलग रास्तों पर चल कर अपनी-अपनी मंज़िलें तलाश रहे हैं। लेकिन अपने रास्तों और अपने दिल की आवाज़ को लेकर खासे कन्फ्यूज़ भी हैं। उनके साथ हो कुछ और रहा है लेकिन इनके सपने कुछ और हैं। फिर ये लोग एक ट्रिप पर निकलते हैं और वहां इन्हें ऐसे-ऐसे एक्सपीरियंस होते हैं कि इनकी सोच, रास्ते, मंज़िलें, सपने, सब बदल जाते हैं।
कहिए, कितनी फिल्में याद आईं? अब क्या फर्क पड़ता है कि इस फिल्म जैसी कहानी और ऐसे किरदार हम-आप फिल्मों में कई दफा देख चुके हैं। वैसे भी इधर तो हो ही यही रहा है कि कोई भी ऐसी कहानी लो जिसमें दर्शक दिलचस्पी ले सकें और फिर सैटअप चेंज करके उसमें अपना वाला टच डालो और परोस दो। देखा जाए तो यह ‘अपना वाला टच’ ही है जो किसी डायरेक्टर के टेलेंट को सामने लाता है। इस फिल्म के डायरेक्टर अयान मुखर्जी अपना टेलेंट अपनी पिछली और पहली फिल्म ‘वेकअप सिड’ से दिखा ही चुके हैं। इस फिल्म में उन्होंने यह करामात दिखाई है कि जहां पर इस किस्म की कहानियां खत्म होती हैं, वहां उन्होंने इंटरवल किया है।
पढ़ाकू हीरोइन आठ साल पहले के उस ट्रैकिंग ट्रिप को याद कर रही है जिसमें वह अपने तीन मस्तमौला दोस्तों के साथ गई थी और जिसके बाद ज़िंदगी के प्रति उसकी सोच बदल गई थी। इंटरवल के बाद इनमें से एक की शादी पर ये लोग फिर मिलते हैं और लगता है कि इस बाद ज़रूर कुछ बदलाव आएगा। लेकिन इस बार भी वैसा कुछ नहीं होता जिसे देख कर आप कहें कि हुंह, ऐसा तो हर कहानी में होता है। दरअसल यही इस फिल्म की खासियत है कि यह पूरी तरह से फिल्मी होते हुए भी रिएलिटी से अपना जुड़ाव नहीं छोड़ती। अंत में जब नायक-नायिका एक-दूसरे से अपने प्यार का इज़हार करके गले मिलते हैं तब भी उनके संवाद पूरी तरह से प्रैक्टिकल होते हैं कि सपनों के लिए अपनों को नहीं छोड़ा जा सकता। अब यह बात अलग है कि इस तरह की फिल्में आखिरकार इस हैप्पी नोट पर ही खत्म होती हैं कि अपनों की जगह सपनों से ऊपर होती है।
स्क्रिप्ट में लगातार रवानी बनी रहती है और इंटरवल तक यह अपने नाम के मुताबिक वो सारा ऐसा दीवानापन दिखाती भी है जो जवानी के दिनों में कोई भी करना चाहेगा। डायलॉग सचमुच काफी अच्छे हैं। कैरेक्टराइजेशन सधा हुआ है। टैक्निकली फिल्म काफी स्ट्रांग है। लाइटिंग बहुत कायदे से की गई है। कैमरे ने काफी खूबसूरती के साथ न सिर्फ लोकेशंस कैद की हैं बल्कि इमोशंस को भी पकड़ा है। फिल्म न सिर्फ चटपटा मनोरंजन देती है बल्कि बहुत सारे अच्छे संदेश भी हैं इसमें। पकड़ सकें तो पकड़िए।
लेकिन फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। शुरु में इसकी स्पीड तेज़ है तो बाद के स्लो दृश्य अखरने लगते हैं। हालांकि ये सीन खराब नहीं हैं लेकिन पहले आपने ही रफ्तार की आदत लगा दी और बाद में आप ही धीमे पड़ जाएं तो यह खलेगा ही न। फिल्म की लंबाई को थोड़ा और कम किया जाना चाहिए था। और हां, जब सब कुछ सही जा रहा हो और थिएटर में बैठा दर्शक यह सोच रहा हो कि इस फिल्म को तो अपने बच्चों को भी दिखाया जा सकता है तो क्लाइमैक्स में आकर यह ज़बर्दस्ती वाला किस्स-सीन डालने की क्या ज़रूरत आन पड़ी?
फिल्म के गाने पहले ही हिट हो चुके हैं और ये पर्दे पर आकर अच्छे भी लगते हैं। ‘बलम पिचकारी…’ अब हर होली पर बजा करेगा। रणबीर कपूर ने हर बार की तरह कमाल का काम किया है। वह पर्दे पर आते हैं तो जैसे रोशनी-सी हो उठती है। दीपिका पादुकोण ने अपने कैरेक्टर में मिले अलग-अलग शेड्स का जम कर इस्तेमाल किया। फारूक़ शेख, तन्वी आज़मी, डॉली आहलूवालिया, एवलिन शर्मा, कुणाल रॉय कपूर आदि जंचे। कल्कि केकला भी जमीं और आदित्य रॉय कपूर भी। लेकिन क्या आदित्य ने तय कर लिया है कि अपनी हर फिल्म के हर सीन में वह शराब ही पीते रहेंगे?
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था)
Release Date-31 May, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)