-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
बादशाहत भाईचारे को नहीं जानती…! इस एक लाइन के चारों तरफ बुनी गई इस फिल्म की कहानी में कोई नयापन नहीं है। किसी क्रिमिनल के गैंग में उसके खासमखास को हटा कर उसकी जगह पर उसी के हमशक्ल को रखने की ‘डॉन’ जैसी कहानियां हिन्दी फिल्में हमें काफी दिखा चुकी हैं। तो इस फिल्म में नया क्या है? जवाब यह है कि जिस खासमखास को हटाया गया वह उस क्रिमिनल का बेटा है और जिस हमशक्ल को पुलिस ने वहां पर रखा, वह भी उसी क्रिमिनल का बेटा है जिसे बरसों पहले मरा हुआ मान लिया गया था।
गुड़गांव शहर की इस कहानी में एक तरफ अपराधियों का परिवार है और दूसरी तरफ पुलिस वालों का। लेकिन पुलिस भी यहां किसी क्रिमिनल से कम नहीं है। दोनों ही तरफ कुछ अपने हैं, कुछ सपने हैं, कुछ धोखेबाज हैं और कुछ ऐसे भी जिनका जमीर जगता है तो वह गलत को छोड़ सही का साथ देने लग जाते हैं।
सबसे पहले तो इस फिल्म का नाम ही कन्फ्यूज़ करता है। फिर यशराज वालों ने इसकी कायदे से पब्लिसिटी ही नहीं की वरना फिल्म की रिलीज़ के दिन लोग मुझसे यह न पूछ रहे होते कि क्या यह कोई पीरियड फिल्म है जिसमें मुगल बादशाह शाहजहां और औरंगजेब का जमाना दिखाया गया है? कुछ लोगों को यह भी लग रहा था कि यह मुस्लिम बैकग्राउंड वाली फिल्म होगी। खैर, इधर लंबे समय से यशराज फिल्म्स से मौज-मस्ती वाली फिल्में ही आ रही हैं तो ऐसे में इस गंभीर मिज़ाज वाली फिल्म का आना सुहाता तो है लेकिन इसकी स्लो स्पीड कई जगह अखरने भी लगती है। फिर जो स्क्रिप्ट तैयार की गई है उसमें न सिर्फ कई छेद हैं बल्कि कहानी को कहने का तरीका भी ज्यादा प्रभावी नहीं हो पाया है। कह सकते हैं कि एक बढ़िया प्लॉट पर कमज़ोर स्क्रिप्ट लिखी गई और उसके बाद उसे हल्के ढंग से नैरेट किया गया जिसके चलते यह असर छोड़ पाने में नाकाम रही। नए डायरेक्ट अतुल सभरवाल की बजाय कोई और शायद इसे ज्यादा बेहतर ढंग से बना पाता।
दिल्ली से सटे गुड़गांव के तेजी से एक चमकते महानगर में तब्दील होने और इससे वहां बढ़ रहे अपराध के ग्राफ के बीच पॉवर कब्जाने की जंग को करीब से दिखाती है यह फिल्म। सरकारी विकास परियोजनाओं के पीछे के जिस सच को ‘शंघाई’ या ‘चक्रव्यूह’ जैसी फिल्मों ने छुआ उसे यह फिल्म भी दिखाती है। फिल्म का एक डायलॉग कहता है-आने वाले वक्त में इस देश को सिर्फ दो ताकतें चलाएंगी, एक पॉलिटिक्स और दूसरा पैसा। सच यही है और इससे भी बड़ा सच यह है कि न सिर्फ आने वाले वक्त में बल्कि मौजूदा वक्त में भी इस देश को सिर्फ एक ही ताकत चला रही है-पैसा। इस फिल्म में न सिर्फ कारोबारी, बल्कि पुलिस वाले भी उसी पैसे के लिए ही सब कर रहे हैं जिससे पॉवर आती है। फिल्म के कई डायलॉग्स सचमुच काफी असरदार हैं। लेकिन यही बात पूरी फिल्म के बारे में नहीं कही जा सकती।
अर्जुन कपूर डबल रोल में जंचे हैं लेकिन इमोशनल सीन में वह कमज़ोर पड़ जाते हैं। बीते जमाने की पाकिस्तानी अदाकारा सलमा आगा की बेटी साशा आगा की सूरत और एक्टिंग बस ठीक-ठाक ही है। वैसे भी उनके करने के लिए इस फिल्म में कुछ खास नहीं था। हां, अपने पहले ही सीन में बिकनी पहनने और फिर बिस्तर के गर्मागर्म दृश्यों में उनका कॉन्फिडेंस साफ झलकता है। कलाकारों की तो पूरी फौज है इसमें। साऊथ से आए पृथ्वीराज जमे हैं। स्वरा भास्कर, तन्वी आजमी, अनुपम खेर, दीप्ति नवल को काफी छोटे रोल मिले लेकिन सभी ने बहुत सधा हुआ काम किया। ऋषि कपूर पूरी फिल्म में छाए रहे लेकिन क्लाइमैक्स में आकर हल्के पड़ गए। अमृता सिंह निगेटिव रोल में असरदार रहीं।
गाने काफी हल्के हैं। उनमें न तो कोई गुनगुनाने लायक है और न ही थिरकाने लायक। अगर इन्टेंस सिनेमा आपको भाता है और आप स्क्रिप्ट के छेदों को सह सकते हैं तो इसे देख सकते हैं। लेकिन फैमिली और बच्चों को इस फिल्म से दूर रखें।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-17 May, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)