-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
डायरेक्टर राज निदिमोरू और कृष्णा डी.के. की पिछली दोनों फिल्मों (‘99’ और ‘शोर इन द सिटी’) देखने के बाद उनके बारे में यह तो कहा ही जा सकता है कि उनकी कोई फिल्म आएगी तो उसकी कहानी भी हट के होगी और उसका ट्रीटमेंट भी। इनकी इस तीसरी फिल्म में भी ऐसा ही है जो एक ‘जॉम्बी-कॉमेडी’ है। हॉरर वर्ल्ड में ‘जॉम्बी’ उन चलते-फिरते मुर्दा लोगों को कहा जाता है जो किसी को काटते हैं तो वह शख्स भी जॉम्बी बन जाता है। हॉलीवुड में तो ढेरों जॉम्बी फिल्में बन चुकी हैं-डराने वाली भी और हंसाने वाली भी। लेकिन अपने यहां यह दूसरी जॉम्बी फिल्म है। ऐसी पहली फिल्म ‘राइज ऑफ द जॉम्बी’ कुछ ही हफ्ते पहले कब आई, कब गई, कुछ पता नहीं चला। अब भूत-प्रेतों की तरह जॉम्बी भी होते हैं या नहीं, यह मानने-न मानने का विषय है। बहरहाल, यह एक कॉमेडी फिल्म है और जैसा कि पिछले दिनों सैफ ने मुझे दिए एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में कहा कि कॉमेडी बहुत सारी चीज़ों को माफ कर देती है। इस फिल्म में भी ऐसा काफी कुछ है जो तर्क की कसौटी पर अखर सकता है लेकिन कॉमेडी के फ्लेवर के चलते हजम किया जा सकता है।
हमेशा सिगरेट-शराब और लड़कियां के ख्यालों में डूबे रहने वाले दो लड़के अपने तीसरे दोस्त के साथ गोआ जाते हैं जहां एक लड़की इन्हें एक आइलैंड पर किसी रशियन ड्रग माफिया की रेव पार्टी में ले जाती है। लेकिन यहां इनका सामना होता है बहुत सारे जॉम्बीज़ से जो इनके पीछे पड़ जाते हैं और ये चारों और वह रशियन माफिया उनका मुकाबला करते हुए किसी तरह से उनसे बच कर निकलते हैं।
राज-डी.के. की यह फिल्म सैफ अली खान जैसे बड़े स्टार के साथ और उन्हीं के बैनर से आई है। अक्सर बड़े सितारों की मौजूदगी नए निर्देशकों की क्रिएटिविटी को भटकाती है, सो थोड़ा-सा भटकाव इस फिल्म में भी नजर आता है। स्क्रिप्ट कई जगह लटक जाती है। इन सब के रेव पार्टी में पहुंचने तक सब सही चल रहा है और जॉम्बीज़ के आने के बाद जो ट्विस्ट आता है उससे लगता है कि अब यह एकदम से छलांग लगाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है और लगता है जैसे राइटर्स की इमेजिनेशन अचानक से मंद पड़ गई हो। बार-बार यही दिखाया जा रहा है कि जॉम्बी इन्हें खाने के लिए इनके पीछे पड़े हैं और ये किसी तरह से उनसे बचते हुए भाग रहे हैं। जबकि यहां पर कुछ और ट्विस्ट एंड टर्न्स डाल कर कहानी को और ज्यादा दिलचस्प बनाया जा सकता था।
कुणाल खेमू और वीर दास फिल्म के मेन हीरो हैं और इन दोनां को जिस तरह के कैरेक्टर मिले, इन्होंने बहुत ही शानदार ढंग से निभाए। आनंद तिवारी पर इस किस्म के अच्छे बच्चे वाले रोल जंचते हैं। पूजा गुप्ता ने यह रोल सैफ के बैनर के चक्कर में ले लिया होगा वरना उन्होंने बिकनी में अपनी हॉट बॉडी दिखाने और डरने-चीखने-भागने के अलावा कुछ और नहीं किया है। सैफ जब अपना रशियन चोला उतार कर देसी अवतार में आते हैं तो कहीं ज़्यादा जंचते हैं। लेकिन फिल्म न तो उनके टेलेंट का कायदे से इस्तेमाल कर पाई और न ही स्टारडम का।
इस फिल्म में एंटरटेनमैंट की इतनी खुराक तो है कि यंग सोच वाले दर्शक इसे एन्जॉय कर सकें। अगर गालियों और अश्लील संदर्भों से आपको एतराज़ न हो तो इस फिल्म को देख डालिए, मज़ा आएगा। हां, बच्चों को इस फिल्म से ज़रा दूर ही रखिएगा।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय किसी अन्य पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था।)
Release Date-10 May, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)