-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई अंडरवर्ल्ड, डॉन, माफिया, भाई लोग… बोले तो अपने हिन्दी फिल्म वालों के ये पसंदीदा विषय रहे हैं और इतिहास गवाह है कि अगर ऐसे विषय पर कायदे से फिल्म बनाई जाए तो न सिर्फ दर्शक उसे पसंद करते हैं बल्कि वह बरसों बाद भी याद की जाती है। अब यह फिल्म बरसों बाद भले ही न याद की जाए लेकिन मौजूदा दौर के बॉक्स-ऑफिस की मांग तो यह पूरी करती नज़र आ ही रही है।
इस फिल्म की की कहानी भले ही हुसैन ज़ैदी की किताब ‘डोंगरी टू दुबई’ से ली गई हो लेकिन संजय गुप्ता और उनकी टीम ने इसकी स्क्रिप्ट को पूरी तरह से फिल्मी जामा पहनाया है और इसमें वे तमाम फॉर्मूले डाले हैं जिनके कंधे पर चढ़ कर कोई फिल्म एक आम दर्शक के ज़ेहन पर हावी हो जाती है।
मुंबई पुलिस के पहले शूटआउट में मारे गए गैंग्स्टर मण्या सुर्वे की कहानी है तो ज़ाहिर है कि इसमें मारामारी-गोलीबारी तो होगी ही। तो जॉन अब्राहम, अनिल कपूर, सोनू सूद, मनोज वाजपेयी तुषार कपूर वगैरह यह काम करते नजर आए हैं। अब अपना हीरो भले ही राम हो या रावण, उसके साथ इश्क फरमाने और पर्दे पर गर्माहट बिखेरने के लिए एक अदद हीरोइन भी चाहिए। तो लीजिए, कंगना रनौत हाज़िर हैं जो संवाद भले ही किसी भी तरह बोलें, कपड़े उतारने का काम अच्छे से कर लेती हैं। ‘नैनसुख’ की कमी रह गई हो तो सोफी चौधरी और आयातित हसीना सनी लियोन के आइटम नंबर देखिए और ठंडी आहें भरें या सीटियां बजाइए, आपकी मर्जी। तीसरा आइटम नंबर प्रियंका चोपड़ा का है जिन्होंने बहुत ‘निराश’ किया। भई, इतनी बड़ी हीरोइन से आइटम नंबर करवाने की क्या तुक है जब वह दर्शकों को आंखें ही न गर्मा पाए?
तालियां बजाने का मन कर रहा हो तो मिलन जावेरी की कलम से निकले डायलॉग सुनिए। हालांकि ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ की फोटोकॉपी सरीखी इस फिल्म में उस फिल्म जैसे दमदार संवाद नहीं हैं लेकिन ये इतने बुरे भी नहीं हैं कि आपको अखरें। इतने मसालों से भी मन न भरे तो फिल्म में गालियां भी हैं और अश्लील बातें भी। भई, अब ‘भाई लोगों’ की फिल्म है तो भजन-कीर्तन तो होगा नहीं।
जॉन अब्राहम को बढ़िया किरदार मिला तो उन्होंने उसका भरपूर इस्तेमाल भी किया। अनिल कपूर ने जोशीले पुलिस अफसर का रोल जोशीले ढंग से निभाया भी। मनोज वाजपेयी के प्रशंसक उन्हें छोटे और हल्के किरदार में खर्च होते देख कर निराश भले हों लेकिन पर्दे पर मनोज की मौजूदगी कत्तई निराश नहीं करती। प्रोड्यूसर (एकता कपूर) के भाई तुषार कपूर भी अपनी सीमाओं में रहने के बावजूद सही लगे। शक्ति कपूर के बेटे सिद्धांत कपूर ठीक रहे। हालांकि उनके किरदार का जो नाम है उसे यहां लिखा तक नहीं जा सकता। कंगना को जिस ‘काम’ के लिए रखा गया था, वह उन्होंने बखूबी किया।
फिल्म में एक्शन भरपूर है और पांच संगीतकार मिल कर एक भी यादगार गाना नही दे पाए।
संजय गुप्ता की ज्यादातर फिल्में पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं और इनका टार्गेट ऑडियंस भी पुरुष ही होते हैं। इस फिल्म के साथ भी ऐसा ही है। एक्शन, अंडरवर्ल्ड, गालियों और अश्लील संवादों के मौजूद होने और रोमांस, इमोशंस के लापता होने के चलते यह फिल्म आम पुरुष दर्शक वर्ग के लिए ही है। बाकी लोग इससे परे रहें।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-3 May, 2013
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)