-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘रिश्ता बनाना मतलब मिट्टी से मिट्टी पर मिट्टी लिखना और रिश्ता निभाना मतलब पानी पर पानी से पानी लिखना… चलो, रिश्ता निभाते हैं।’’
यह एक संवाद ही इस फिल्म की कहानी का पूरा निचोड़ है। रणविजय सिंह बचपन से ही अपने पापा से बेइंतहा प्यार करता है, जान छिड़कता है उन पर। अपनी बहन को छेड़ने वालों को मारता है तो बाप उसे ‘क्रिमिनल’ करार देकर पढ़ाई के लिए विदेश भेज देता है। लेकिन जब उसी बाप पर जानलेवा हमला होता है तो रणविजय पीछे नहीं हटता। पागलों की तरह वह हर उस शख्स को मारता चला जाता है जो उसके पापा की तरफ आंख भी उठा कर देखता है। उसका यह पागलपन उसकी नज़र में जायज़ है तो वहीं दूसरों के लिए वह एक जानवर, एनिमल बन चुका है जिसे खून बहाने से कोई दिक्कत नहीं, चाहे वह अपना हो या दूसरों का।
हमेशा बिज़ी रहने वाले और अपने बच्चों व परिवार से ज़्यादा अपने बिज़नैस में डूबे रहने वाले रईस बिज़नैसमैन पापा और उसके रूखेपन के चलते उद्दंड हो चुके बेटे की कहानियां सिनेमा के लिए नई नहीं हैं। यह कहानी भी इसी ढर्रे पर है। अलग है तो यह कि यहां बेटा गलत राह पर नहीं चला बल्कि अपने पापा के हर सही-गलत आदेश का तब तक पालन करता रहा जब तक कि उन पर हमला नहीं हुआ। और जब हमला हुआ तो उसने कमान अपने हाथ में ले ली। फिर उसने न गलत देखा न सही। वैसे इस हमले के पीछे की वजह भी कोई बहुत मज़बूत नहीं बताई गई।
दरअसल इस फिल्म की खासियत ही यही है कि इसमें एक साधारण-सी कहानी को विस्तार देकर इस कदर असाधारण बनाया गया है कि वह हमें अपने आसपास की दुनिया की नहीं लगती। संदीप रेड्डी ने इस फिल्म का जो आवरण तैयार किया है, यह फिल्म उससे कहीं बड़ी बन गई है। ऐसी भव्यता, ऐसा शानदार वातावरण कि देखने वाला चकाचौंध होकर रह जाए। देश के सबसे अमीर आदमी पर हमला और उसके बाद उसके बेटे व उसके निजी सिक्योरिटी गार्डों (जिन्हें वह ‘सिक्योरिटी गार्ड नहीं भाई हैं मेरे’ कहता है) द्वारा देश-दुनिया में खून की नदियां बहाने वाली इस कहानी में कहने भर को भी पुलिस और कानून के दर्शन नहीं होते। हैरानी की बात यह है कि फिल्म देखते हुए हमें भी इसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती। एक अकेला रणविजय और उसके साथी ही इतना कुछ करते चले जाते हैं कि दर्शकों का ध्यान किसी और तरफ जाता ही नहीं है। यह कसावट ही इस फिल्म की खूबी है। फिल्म महंगे बजट में बनी है और यह बजट पर्दे पर साफ दिखता भी है।
अपने लेखकों के साथ मिल कर निर्देशक संदीप रेड्डी वंगा इस फिल्म में हमें अपनी बनाई एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं जहां सिर्फ उनके नियम चलते हैं, उनके द्वारा तय किए हुए कायदे अमल में लाए जाते हैं। इस दुनिया में भरपूर हिंसा है, खून है, क्रूरता है। याद नहीं पड़ता कि पिछली बार मुख्यधारा की किस हिन्दी फिल्म में पर्दे पर इतना खून बहा था। इस फिल्म को ‘ए’ सर्टिफिकेट मिला है यानी 18 बरस से कम के लोग इसे नहीं देख सकते। वैसे इस फिल्म में बेहिसाब हिंसा के अलावा और भी ऐसा बहुत कुछ है जिसे बच्चों और किशोरों को ही नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों को भी देखने से बचना चाहिए जिन्हें पर्दे पर कुछ साफ-सुथरा देखने की चाह होती है।
रणविजय अपने पापा को इस कदर डूब कर प्यार क्यों करता है? फिल्म इसकी वजह नहीं बताती, बल्कि एक संवाद में रणविजय कहता भी है कि इसकी कोई वजह नहीं है। यही कारण है कि पूरी फिल्म में पापा-पापा करते शख्स की भावनाएं सुनाई और दिखाई तो देती हैं, महसूस नहीं होतीं। इसीलिए अपने पापा के लिए कुछ सही करते समय वह जब दूसरों के साथ गलत करता है तो उसकी हरकतें जायज़ नहीं लगतीं। जायज़ तो इस फिल्म में बहुत कुछ नहीं लगता। सिक्ख सिक्योरिटी गार्डों से घिरे रणविजय का हर समय सिगरेट पीना भी। वैसे इस फिल्म के कई पहलुओं पर कइयों को एतराज़ होने वाला है क्योंकि इसमें स्वास्तिक और हिटलर की बात है, चर्च की बात है, इस्लाम की तीन शादियों की बात है। अब कौन-सी बात किसे खटक जाए, किसे पसंद आए, क्या पता। एक बात और, इस फिल्म के बाद दर्शकों में खून देखने, खून बहाने, सिगरेट पीने, कामुक होने, औरतों पर जुल्म करने जैसी बुराइयां जन्में या बढ़ें, यह भी आप दर्शकों को सोचना है, सैंसर ने तो जो पास करना था, कर दिया।
‘कबीर सिंह’ से संदीप रेड्डी ने नायक का जो एक मैचो अवतार खड़ा किया था, ‘एनिमल’ उसे विस्तार देती है। रणबीर कपूर इस अवतार में इस कदर समाए हैं कि उन्हें देख कर रश्क होता है। रश्मिका मंदाना खूबसूरत लगीं और वक्त आने पर अपनी काबिलियत भी साबित कर गईं। अनिल कपूर ऐसे किरदार करते रहे हैं, यहां भी जंचे। बॉबी देओल को काफी कम सीन मिले, जो मिले उनमें भी वह एक्शन ही करते रहे। सौरभ सचदेवा, तृप्ति डिमरी, सिद्धार्थ कार्णिक, उपेंद्र लिमये, सुरेश ओबरॉय, प्रेम चोपड़ा, शक्ति कपूर आदि बाकी कलाकारों ने भरपूर साथ निभाया। गाने अच्छे हैं और उनका फिल्मांकन भी। लेकिन ये बहुत ज़्यादा हैं। लगता है कि इन्हें कम होना चाहिए था या फिर छोटा। फिल्म की 3 घंटे 23 मिनट की लंबाई भी इंटरवल के बाद के कई सीन में चुभती है। कई सीन लंबे-लंबे हैं जिनकी ज़रूरत नहीं थी। यहां तक कि फिल्म खत्म होने के बाद भी पांच मिनट तक चलती है। उठिएगा नहीं, बहुत कुछ खो देंगे आप, सीक्वेल का नाम भी। बैकग्राउंड म्यूज़िक और एक्शन इस फिल्म को जानदार बनाते हैं। सिनेमैटोग्राफी और लोकेशन ज़बर्दस्त हैं। कम्प्यूटर ग्राफिक्स बेहद अच्छे।
रिव्यू-‘कबीर सिंह’-थोथा चना बाजे घना
संदीप रेड्डी ने कमर्शियल सिनेमा के आकाश पर इस फिल्म से इतनी बड़ी लकीर खींच दी है जिसे पार कर पाना आसान नहीं होगा। मसालेदार, थ्रिलर, एक्शन पैक्ड मनोरंजन की चाह हो तो यह फिल्म देखिए। इन चीज़ों से परहेज़ हो तो इस हफ्ते आई ‘सैम बहादुर’ भी हाज़िर है।
रिव्यू-माथे का तिलक है ‘सैम बहादुर’
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-01 December, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बहुत शानदार विश्लेषण दीपक भाई 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
धन्यवाद
रिव्यु पढ़कर इस फिल्म को देखा और जो लिखा गया है वही पाया…खून -खराबा, मार -धाड़ इत्यादि…. कहानी में नयापन ये है कि इसको आज क़े परिवेश क़े हिसाब से फिल्माया और दिखाया गया है…. रणबीर कपूर खूब जचे और कौन कब किस को जच जाए इसका किसी को क्या पता।
बाप -बेटे का प्रेम और उस प्रेम में अंधे हुए बेटे की कहानी मात्र लगी….एक बार को तो लगा कि ये फ़िल्म दक्षिण भारतीय सुपर स्टार प्रभास कि फ़िल्म ‘रिबेल’ लगी जो 2012 में आई थी… उस फ़िल्म में भी एक नामी -ग्रामी, खुद्दार और दबंग बिजनेसमैन, खून -खराबे से अपने बेटे को दूर रखने क़े लिए पढ़ाई क़े लिए विदेश भेज देता है… लेकिन खून तो खून ही होता है.. जो हमेशा रगों में दौड़ता रहता है चाहे पास रहे या दूर… एक बार रिबेल को भी देखना चाहिए…. उसमें khoon-खराबा, सिख सिक्योरिटी गार्ड इत्यादि को भलीभांति दिखाया गया था…. रिबेल में एक शालीनता देखने को मिलती है… जबकि इस ‘एनिमल ‘ में नहीं…