दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारतीय थल सेना के अध्यक्ष और भारत के पहले फील्ड मार्शल रहे सैम मानेकशॉ के बारे में जिन भारतीयों को मालूम है, वे उनका नाम आने पर गर्व से भर उठते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर कितने भारतीय हैं जो उनके बारे में ठीक से जानते हैं? यह फिल्म हमें उन्हीं सैम ‘बहादुर’ के बारे में बताती है-बड़े ही सधेपन से, बड़े ही सलीके से, बड़ी ही ईमानदारी से।
पंजाब के अमृतसर में बसे एक पारसी परिवार में 1914 में जन्मे सैम 18 बरस की उम्र में ही सेना में आ गए थे। अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान दूसरे विश्व युद्ध में जापानियों से लड़ते हुए अपनी बहादुरी के लिए सम्मानित होने वाले सैम ने बंटवारे के समय पाकिस्तानी सरकार के बुलावे के बावजूद भारत और भारतीय सेना को चुना। हैदराबाद व जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को लेकर उपजे संकट के समय उन्होंने बड़ी भूमिकाएं निभाईं। नेताओं और सैन्य अफसरों की राजनीति का शिकार हुए सैम पर एक समय ‘राष्ट्रद्रोह’ का मुकदमा भी चला जिसका उन्होंने पूरी निडरता से सामना किया। 1962 में चीन से करारी हार मिलने के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें उत्तर-पूर्वी भारत में भेजा जिसके बाद वहां के हालात सुधरने शुरू हुए। 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर पाकिस्तानी फौज ने बर्बरता की तो सैम की अगुआई में ही भारतीय सेना ने उन लोगों की मदद की और अलग बांग्लादेश बनाने में महती भूमिका निभाई। पद्म भूषण व पद्म विभूषण जैसे सम्मान पाने के बाद देश के पहले फील्ड मार्शल बने सैम ने सेना से स्वैच्छिक रिटायरमैंट ली और 94 बरस का शानदार जीवन जिया।
यह कहानी एक डॉक्यूमैंट्री की तो हो सकती है लेकिन इस पर फीचर फिल्म और वह भी हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा में…? यही तो कमाल है सिनेमा का, कि यदि ठान लिया जाए तो हर किस्म की कहानियां कही जा सकती हैं। मेघना गुलज़ार, भवानी अय्यर और शांतनु श्रीवास्तव की लिखाई में उनके द्वारा की गई घनघोर रिसर्च तो झलकती ही है, एक आर्मी अफसर की कहानी को दिलचस्प और निष्पक्ष बनाने की उनकी कोशिशें भी दिखाई देती हैं। अपनी फिल्म ‘राज़ी’ में तथ्यों को मरोड़ने के लिए आलोचना पा रहीं मेघना ने इस बार ज़्यादा सधेपन से काम लिया है। एक सिपाही के भी आत्मसम्मान के लिए खड़े रहना, देश के आम नागरिकों के अधिकारों के लिए डटे रहना और बड़े से बड़े अफसर या नेता की आंखों में झांक कर पूरी निडरता से सच कहना सैम की खासियत थी। यह फिल्म उनकी तमाम खासियतों को उभार कर सामने लाती है। यही कारण है कि इसे देख कर गर्व होता है। यह ख्याल मन में आता है कि कुछ लोग थे जिन्होंने अपनी रीढ़ सीधी रखी और उन्हीं की वजह से भारत का गौरव बना रहा।
(रिव्यू-खुरपेंच राहों पर ‘राज़ी’ सफर)
मेघना के निर्देशन में पैनापन है। सीन बनाने से लेकर कलाकारों से काम निकलवाने का हुनर उन्हें बखूबी आता है। सभी कलाकारों ने भी उनका भरपूर साथ निभाया है। विक्की कौशल को जब-जब जटिल किरदार मिले उन्होंने अपना लोहा मनवाया है। हर बार उन्हें पिछली बार से एक पायदान ऊपर चढ़ते देख कर हैरानी होती है कि यह शख्स खुद अपनी ही सीमाएं कितनी बार लांघेगा। सैम मानेकशॉ के किरदार को ही नहीं बल्कि उस किरदार की आत्मा तक को छुआ है उन्होंने। पुरस्कारों से लाद देना चाहिए विक्की को। एक बात और, पहले तो यह लगा कि क्या सैम देव आनंद की तरह बोलते थे? फिर याद आया कि नहीं, देव आनंद ज़रूर सैम की तरह बोलते थे। सान्या मल्होत्रा, गोविंद नामदेव, नीरज कबी, फातिमा सना शेख, अंजन श्रीवास्तव जैसे अन्य कलाकार भी अपने चरित्रों के साथ भरपूर न्याय करते दिखे।
गुलज़ार के गीत व शंकर-अहसान-लॉय का संगीत फिल्म के मिज़ाज के मुताबिक रहा-सटीक और सधा हुआ। फिल्म के प्रोडक्शन डिज़ाइन, किरदारों के लुक-डिज़ाइन और उनके कॉस्ट्यूम-डिज़ाइन करने वालों की भी तारीफ होनी चाहिए। जय पटेल के कैमरे ने असर छोड़ने लायक सीन बनाए।
कुछ एक जगह डॉक्यूमैंट्री नुमा होती इस फिल्म में ढेरों मसाले डाले जा सकते थे, इसे चटपटा बनाया जा सकता था। लेकिन ऐसा होता तो यह इतनी सधी हुई न बन पाती। इतिहास के पन्ने पलटते हुए मेघना गुलज़ार न तो खुद भटकीं और न ही उन्होंने सैम बहादुर की कहानी को भटकने दिया। मुमकिन है, कुछ जगह पर यह फिल्म थोड़ी रूखी लगे लेकिन सच यह है कि हमारे देश के एक गौरवशाली नायक की कहानी कहती यह फिल्म असल में माथे का तिलक है-भारत के, भारतीय सेना के, भारतीय सिनेमा के। इसे देखिए। दिखाइए भी।
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Release Date-01 December, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
एक शानदार बायोपिक……अपने अतीत क़े पन्नों को को पलटकर दिखाने का काम अगर कोई करता है और दर्शकों क़े दिलों में घर करता है तो वो है “सिनेमा “… इस फ़िल्म की भले ही ज़्यादा पब्लिसिटी न हुई हो लेकिन ये अपने आप में एक कामयाब फ़िल्म है… इस फ़िल्म को इस नज़रिये से भी देखना चाहिए की गर दिलों में मातृ-भक्ति हो तो उसको कोई तोड़ नहीं सकता/हरा नहीं सकता… चाहे औहदा हो या पैसा….
शानदार एवं सम्पूर्ण रिव्यु…
शुक्रिया…