-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
1984 में 2-3 दिसंबर की सर्द रात में भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने से लीक हुई गैस ने हज़ारों जानें ली थीं और लाखों लोगों को कई पीढ़ियों के लिए बीमार कर दिया था। दुनिया के इस सबसे भयावह औद्योगिक हादसे की कसक हम भारतीयों के मन में तब से बनी हुई है और शायद हमेशा बनी रहेगी। ऐसा हादसा, जो होना ही नहीं चाहिए था। ऐसा हादसा, जिसे रोका जा सकता था। ऐसा हादसा, जिसके होने के बाद ज़्यादा राहत ज़्यादा जल्दी पहुंचाई जा सकती थी। ऐसा हादसा, जिसके कसूरवारों को मुनासिब सज़ा दी जा सकती थी। ऐसा हादसा, जिसके पीड़ितों के ज़ख्मों पर पर्याप्त मरहम लगाया जा सकता था। लेकिन अफसोस, ऐसा कुछ नहीं हुआ और वह हादसा हम भारतीयों की आत्मा में आज तक शूल बन कर चुभ रहा है, नासूर बन कर रिस रहा है।
नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई एक-एक घंटे के चार एपिसोड वाली यह सीरिज़ ‘द रेलवे मैन’ बताती है कि कैसे दो साल पहले उस कारखाने में गैस रिसने से एक कर्मचारी की मौत हुई थी जिसके बाद एक स्थानीय पत्रकार (स्वर्गीय राजकुमार केसवानी) ने पड़ताल करते हुए सिस्टम को आगाह किया था कि भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है लेकिन किसी ने उनकी एक न सुनी। और जब हादसा हो गया तो पीड़ितों को सुरक्षित वहां से निकालने की बजाय तत्कालीन सरकार गलतियों पर पर्दे डाल रही थी और यहां तक कि यूनियन कार्बाइड के चीफ एंडरसन को कानून की गिरफ्त से निकाल कर वापस उसके देश भेजने का बंदोबस्त कर रही थी। ऐसे में भारतीय रेलवे के कुछ लोग थे जो अपनी हद से बाहर जाकर लोगों की मदद करने और उन्हें वहां से सुरक्षित बाहर निकालने में जुटे हुए थे-बिना अपनी उखड़ती सांसों की परवाह किए।
डिज़ास्टर-सिनेमा के प्रति हमारे भीतर विशेष लगाव रहता है। किसी हादसे के चलते कुछ लोगों के फंसने और कुछ लोगों द्वारा उन्हें बचाने की कहानियां सच्ची हों या काल्पनिक, अच्छे से बुनी-बनी हों तो हमें भाती ही हैं। आयुष गुप्ता की लिखाई में कल्पना अधिक है लेकिन वह कल्पना सच की बुनियाद पर खड़ी है और इसीलिए कुछ एक छोटी-मोटी कमियों के बावजूद इसे देखना अच्छा लगता है। लेकिन क्या एक गैस-हादसा काफी नहीं था जो लेखकों को इसमें कुछ गैर-ज़रूरी ट्रैक भी डालने पड़े? इस कहानी में ऐसा बहुत कुछ है जो बनावटी लगता है। लगता है कि इसकी बजाय हादसे से जुड़े दूसरे पहलुओं पर थोड़ा और खुल कर, थोड़ा और हार्ड-हिटिंग होकर बात की जाती तो कहानी का असर और गाढ़ा, और गहरा, और पैना होता।
बतौर निर्देशक शिव रवैल ने उस हादसे के माहौल को, उस दिन के हालात को, इस कहानी के किरदारों और उनकी सोच को न सिर्फ कायदे से रचा बल्कि अपने कलाकारों से उम्दा काम निकलवा पाने में भी वह काफी हद तक सफल रहे। स्टेशन मास्टर बने के.के. मैनन कहीं-कहीं तो अपने अभिनय की उत्कृष्टता से भीतर तक असर करते हैं। पत्रकार के किरदार में सन्नी हिंदुजा शांत रह कर खलबली पैदा करते हैं। जूही चावला, आर. माधवन, मंदिरा बेदी, रघुवीर यादव, दिब्येंदु भट्टाचार्य, दिव्येंदु शर्मा जैसे कलाकार अपनी मौजूदगी से प्रभावित करते हैं। थोड़ी-थोड़ी देर को दिखे महेश शर्मा, मुश्ताक खान, डेंज़िल स्मिथ, सुनीता राजवार, भूपेश सिंह, मनीष वधवा आदि भी उम्दा काम कर गए। लेकिन एक कलाकार जो उभर कर अलग से दिखा वह है मरहूम अभिनेता इरफान का बेटा बाबिल। अपने कैरेक्टर में, उस कैरेक्टर की बोली में, उसकी आत्मा में इतना डूब कर काम करने वाला यह अभिनेता अपने हर कदम के साथ इतना बड़ा होता जा रहा है कि एक दिन सिनेमा को इस पर नाज़ होगा।
आर्ट-डायरेक्शन, कैमरा-टीम, स्पेशल इफैक्ट्स, साऊंड, लाईट्स जैसे तकनीकी पक्षों की भी खुल कर तारीफ होनी चाहिए जिन्होंने 1984 के माहौल को अपनी कारीगरी से बखूबी जीवंत किया और प्रभावी ढंग से उसे पर्दे पर उतार पाने में कामयाब हुए। सच तो यह है कि कहानी में बहुत सारे बनावटीपन और गैर-ज़रूरी मोड़ों के बावजूद यह सीरिज़ यदि हमें प्रभावित कर पा रही है तो इसके पीछे इसकी तकनीकी टीम और कलाकारों का बड़ा हाथ है।
अपनी शुरुआत में यह सीरिज़ कहती है कि हमारे यहां के सिस्टम में न तो जान लेने वालों को सज़ा होती है और न जान बचाने वालों को शाबाशी दी जाती है। यह सीरिज़ असल में उन रेलवे-कर्मियों को शाबाशी देने ही आई है जो उस रात जानलेवा गैस से लोगों की उखड़ती सांसों को थामने की कोशिश कर रहे थे। उनके हौसले और जज़्बे को सलाम करती इस सीरिज़ को देखा जाना चाहिए, इसकी कमियों को दरकिनार कर के।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-18 November, 2023 on Netflix.
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
इस सीरीज़ का रिव्यु पढ़कर अंदर से एक पुकार आती है कि इस सीरीज़ को ज़रूर देखना चाहिए… देखना इसलिए चाहिए क्यूंकि यह एक अतीत क़े उस पन्ने को दिखाती और पढ़ाती है जिसको कि दिखाते और पढ़ाते हुए जानबूझकर राजनैतिक हित और स्वार्थ सिद्ध करने क़े लिए छोड़ दिया गया था….इस तरह डिज़ास्टर वाली सीरीज़ हो या मूवी सभी अच्छी हो ये ज़रूरी नहीं बल्कि कलाकारों ने उसको फिल्माते वक़्त कितनी जान झोंकी है यह भी मायने रखता है…
इस सीरीज़ में मरहूम इरफ़ान खान साहब क़े साहबज़ादे जनाब बाबिल की एंट्री बॉलीवुड की बड़ी फिल्मों में अदाकारी दिखाने का मील का पत्थर साबित होगी….
रही बात रघुबीर यादव और माधवन जी की तो ऐसा हो सकता है कि जिस फ़िल्म में ये दोनों और हमारी प्यारी ज़ुही जी हों वो फ़िल्म या सीरीज़ आपको देखने क़े लिए मज़बूर न करें… ऐसा हो ही नहीं सकता….
बाकी सभी अभिनेता और अभिनेत्री भी अपने अच्छे काम की वजह से पहचाने जाते हैँ… क़ाबिले तारीफ़…
वैसे बॉलीवुड को अभी जो उत्तराखंड क़े उत्तरकाशी में वर्कर जो टनल में फंसे हुए है इस टॉपिक पर भी सीरीज़ या फ़िल्म बनाने क़े लिए कहानी मिल गयो है….”विपदा में अवसर”.. ईश्वर से उनके लिए प्रार्थना है कि सही सलामत टनल से बाहर निकाल लिया जाय…
रेटिंग *****….