-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
2014 का इराक। पंजाब से एक लड़की ज्योति नौकरी के लिए वहां गई है। पहले ही दिन वह देखती है कि आतंकवादियों ने एक बच्ची के शरीर पर बम बांधा हुआ है और पुलिस उसे चाह कर भी नहीं बचा पाती। ज्योति को समझाया जाता है कि जहां उसकी नौकरी है, वह इलाका शांत है। लेकिन कुछ दिन बाद अशांति फैलाने वाले वहां भी पहुंचते हैं और तमाम लड़कियों के साथ उसे भी उठा लिया जाता है। लेकिन ज्योति हिम्मत नहीं हारती और तमाम मुश्किलों से लड़ती हुई भारत वापस आती है। मगर कैसे…?
2014 के इराक में आतंकी संगठन आई.एस. के कब्जे से 46 भारतीय नर्सों को निकाल कर स्वदेश वापस लाने की राजनीतिक कहानी हमें पता है। ‘टाइगर ज़िंदा है’ जैसी मसालेदार फिल्म में भरपूर एक्शन के साथ इन नर्सों को वापस लाने का फिल्मी कारनामा भी हम देख चुके हैं। लेकिन इस फिल्म की नायिका ज्योति वहां अकेली फंसी है और वह अकेली ही सारे हालात से भिड़ी भी हुई है। उसकी यह कहानी ही इस फिल्म की ताकत है। लेकिन इस कहानी के चारों तरफ बुनी गई स्क्रिप्ट उतनी ताकतवर नहीं है कि आपको पूरे समय कस कर बांध सके।
हालांकि लेखक प्रणय मेश्राम और गुंजन सक्सेना फिल्म की मूल कहानी के बरअक्स कई सार्थक बातें कहते-उठाते हैं। 2013 की केदारनाथ आपदा में मारे गए कई लोगों की बीमा राशि उनके घरवालों को न मिल पाने, पंजाब के युवाओं की विदेश जाने की लालसा, मज़हब के नाम पर फैला आतंक, उन आतंकियों का अपने ही मज़हब के लोगों को मारना, मीडिया का ढुलमुल रवैया जैसी कई बातें हैं जिन्हें कुछ और ताकत के साथ उठाया जा सकता था। लेकिन फिल्म सिर्फ आतंकियों द्वारा लड़कियों को सैक्स-गुलाम बनाने और उनमें से भी सिर्फ दो-एक के बारे में दिखा कर खुद को सीमित बना लेती है। अलावा इसके ज्योति का संघर्ष हमें ‘संघर्ष’ नहीं लगता क्योंकि उसमें कुछ ‘करने’ की बजाय खुद-ब-खुद ‘होने’ की फील ज़्यादा आती है। कुछ जगह ही उसका जीवट दिखा है, बाकी जगह तो कहानी संयोगों के दम पर आगे बढ़ती रही। हां, समय और स्थान के हिसाब से तर्कों का पूरा ध्यान रखा गया। आयुष तिवारी के संवाद बिल्कुल हल्के रहे।
कई फिल्मों में सहायक रह चुके प्रणय मेश्राम बतौर निर्देशक अपनी इस पहली फिल्म में एक ऐसी कहानी उठाने का साहस दिखाते हैं जिसमें टिकट-खिड़की के नज़रिए से काफी ‘सूखापन’ है। नुसरत भरूचा ऐसी स्टार नहीं हैं जो अपने दम पर दर्शकों को खींच सके। फिर वह चाहते तो इस कहानी को आसानी से एक्शन-थ्रिलर बना सकते थे लेकिन उन्होंने इसे सरवाइवल थ्रिलर वाली लाइन पर रखा जिससे इसे एक अलग फ्लेवर तो मिला लेकिन इसका यही फ्लेवर इसे उन दर्शकों से परे ले जाएगा जो ऐसी फिल्म में एक्शन, मारधाड़ की उम्मीदें लगाते हैं। बावजूद इसके ज्योति की यात्रा और उस यात्रा के दौरान आने वाले पल देखना अच्छा लगता है। हां, कुछ एक सीन बहुत ही कमज़ोर रचे गए। प्रणय अगली बार कुछ और कसावट ला पाएंगे, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
नुसरत का काम सचमुच बहुत अच्छा रहा है। लेकिन पंजाब में रहने वाली लड़कियों की बोली ऐसी नहीं होती। निशांत दहिया भी जंचे। नुसरत की भतीजी के किरदार में बाल-अदाकारा मन्नत दुग्गल प्यारी लगीं। उन्हें और अधिक दमदार सीन दिए जाने चाहिए थे। बाकी के कलाकार अपनी-अपनी भूमिकाओं में सही रहे। म्यूज़िक बहुत कमज़ोर रहा, लोकेशन बढ़िया, सिनेमैटोग्राफी शानदार।
भले ही बड़े सितारों और चटपटे मसालों की गैरमौजूदगी के चलते यह फिल्म बाज़ार के पैमाने पर अकेली पड़ गई हो लेकिन ‘गदर 2’ के मसालेदार घोल के बाद बैलैंस बनाने के लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 August, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
आप ने ओके रिपोर्ट कर दिया और जो डिटेल टीम के नाम दिख रहे है,तो अब पक्का नोट कर लिया है देखने को…!!!
धन्यवाद
सटीक एवं सम्पूर्ण रिव्यु… वाकई अकेली ‘अकेली, पड़ गयी…
शानदार रिव्यु
Bahut badhia review diya aapne Deepak Bhai hamesha ki tarah.
shukriya…