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Home फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-मंज़िल तक पहुंचाती ‘मिमी’

CineYatra by CineYatra
2021/07/31
in फ़िल्म रिव्यू
0
रिव्यू-मंज़िल तक पहुंचाती ‘मिमी’
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अमेरिका से आया एक जोड़ा राजस्थान की लड़की मिमी को 20 लाख रुपए में सरोगेट मदर बनने पर राज़ी करता है। यानी अब मिमी इस जोड़े के बच्चे को 9 महीने तक अपनी कोख में रखेगी और बच्चा पैदा करके उन्हें सौंप देगी। लेकिन अचानक यह जोड़ा लापता हो जाता है। अब मिमी अपने घरवालों को, समाज को क्या जवाब देगी…? बच्चा हुआ, मिमी उसे पालने लगी। कुछ साल बाद वे गोरे आ धमके और उससे अपना बच्चा मांगने लगे। अब मिमी क्या करेगी…? किराए की कोख यानी सरोगेसी हमारे आसपास सुनाई-दिखाई भले न पड़ती हो लेकिन मौजूद अवश्य है। विदेशों से आकर भारत में सरोगेसी के ज़रिए बच्चे जनने की एक पूरी इंडस्ट्री चल रही है अपने यहां। सिनेमा ने भी गाहे-बगाहे इस विषय को छुआ है लेकिन हिन्दी में ऐसा कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हो पाया है। दिक्कत दरअसल ‘टैबू’ समझे जाने वाले इस विषय के साथ ही है। इस पर गंभीरता से फिल्म बनाओ तो वह आर्ट-हाऊस के पाले में जा खड़ी होती है और मसाले में लपेटो तो वह उथली रह जाती है। लेकिन इधर कुछ समय से हिन्दी वालों ने ऐसे विषयों को हास्य और पारिवारिक ड्रामे के साथ परोसना शुरू किया है और यही कारण है कि ‘विकी डोनर’, ‘शुभ मंगल सावधान’ ‘बधाई हो’, ‘लुका छुपी’ जैसी फिल्में बन कर आ सकी हैं। यह फिल्म भी इसी राह पर चलती हैं। 2011 में आई (और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पा चुकी) समृद्धि पौड़े की लिखी व बनाई मराठी फिल्म ‘मला आई व्हायचय’ (मुझे मां बनना है) के इस रीमेक में रोहन शंकर और लक्ष्मण उटेकर ने कहानी को 2013 और उसके बाद के राजस्थान में सैट किया है। स्मृद्धि की कहानी तो उम्दा है ही, रोहन व लक्ष्मण ने उसे हिन्दी वालों के मिज़ाज के मुताबिक कायदे से फैलाया है। मूल मराठी फिल्म एक सच्चे वाकये से प्रेरित इमोशनल व कोर्ट रूम ड्रामे वाली गंभीर फिल्म थी।  हिन्दी में इसे हास्य का पुट दिया गया है ताकि अईंया-बईंया किस्म का कचरा खाने के आदी हो चुके हिन्दी के दर्शकों को लुभाया जा सके। लेकिन इस फेर में फिल्म हल्की भी हुई है और कहीं-कहीं कमज़ोर भी। स्क्रिप्ट ने बहुत जगह तर्क और विश्वसनीयता का साथ छोड़ा पर चूंकि कॉमिक फ्लेवर वाली फिल्मों में यह सब चल जाता है, सो यह ज़्यादा अखरता नहीं है। ‘लुका छुपी’ वाले निर्देशक लक्ष्मण उटेकर ने इस फिल्म में भी अपनी

पिछली फिल्म का-सा ही रंग-ढंग रखा है। बस फिल्म इस बार मथुरा की बजाय राजस्थान में है। उस फिल्म की तरह इसमें भी कृति सैनन व पंकज त्रिपाठी की लगातार मौजूदगी और वैसे-से ही कॉमिक तेवर साफ चुगली खाते हैं कि लेखक-निर्देशक की जोड़ी के पास नया कुछ देने का अभाव है। फिल्म के लिए एक कायदे का अर्थपूर्ण नाम तक तो तलाश नहीं पाए ये लोगकृति ने जम कर काम किया है, शायद अपने अब तक के कैरियर का

सर्वश्रेष्ठ। पंकज त्रिपाठी तो हरा धनिया हो ही चुके हैं। जहां होते हैं, रंगत व स्वाद बढ़ा देते हैं। सई तम्हाणकर, मनोज पाहवा, सुप्रिया पाठक कपूर ने भी इनका खूब साथ निभाया। थोड़ी देर को आए पंकज झा, आत्मजा पांडेय, नूतन सूर्या, अमरदीप झा, शेख इशाक, जया भट्टाचार्य, नरोत्तम बैन, ज्ञान प्रकाश आदि भी जंचे। अमेरिकी जोड़े के रूप में ऐडन व्हायटॉक व एवलिन एडवर्ड्स ने उम्दा काम किया।

नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म के कुछ संवाद बढ़िया हैं। स्थानीय बोली से रंगत जमती है। अमिताभ भट्टाचार्य के गीतों व ए.आर. रहमान के संगीत ने फिल्म को कसा और निखारा ही है। गीतों की कोरियोग्राफी भी उल्लेखनीय है। आकाश अग्रवाल के कैमरे ने किरदारों के साथ-साथ राजस्थान की रंगत को भी बखूबी पकड़ा। ड्रोन शॉट्स ज़रा कम होते तो बेहतर था। इस किस्म की फिल्में मुख्यधारा के सिनेमा में बन रही हैं, हिन्दी वालों के लिए यही बड़ी बात है। एक वर्जित समझे जाने वाले विषय पर हौले से ही सही, बात तो हुई और चंद ही सही, सवाल तो उठाए गए। और अंत में फिल्म कब इमोशनल कर जाती है, पता ही नहीं चलता। मिमी को अमेरिकी जोड़े से मिलवाने वाले ड्राईवर (पंकज त्रिपाठी) से एक दिन मिमी पूछती है कि वे लोग भाग गए, तू क्यों नहीं भागा? वह जवाब देता है-ड्राईवर हूं न, सवारी को उसकी मंज़िल तक पहुंचाए बिना नहीं भाग सकता। यह फिल्म भी ऐसी ही है। यह न सिर्फ अपनी तय की हुई डगर पर चलती है बल्कि बल्कि दर्शकों को मनोरंजन की सवारी कराते हुए संतुष्टि की मंज़िल तक भी ले जाती है। इसे देखने के लिए इतनी वजह बहुत है।

Tags: ‘मिमी’मंज़िल तक पहुंचाती
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