-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मलयालम में बनने वाले संजीदा सिनेमा को देश-विदेश के सिने-प्रेमी दर्शकों ने हमेशा ही मान दिया है। इधर डेढ़-दो साल से ओ.टी.टी. के मंचों के ज़रिए मलयालम में बन रही फिल्मों ने सरहदों को लांघा और भाषाओं बांधों को तोड़ा है। हाल के समय में ‘जोजी’, ‘दृश्यम 2’, ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘अय्यपनम कोशियम’, ‘जल्लीकट्टू’, ‘ट्रांस’, ‘सी यू सून’ जैसी अनेक मलयालम फिल्मों को अंग्रेज़ी सब-टाइटल्स के साथ गैर-मलयाली दर्शकों ने भी जी भर कर सराहा है। अमेज़न प्राइम पर आई महेश नारायणन की यह फिल्म ‘मालिक’ भी यही कर रही है।
अस्सी के दशक के तटीय केरल में एक साथ रह रहे मुस्लिम व ईसाई समुदायों के आपसी रिश्तों की पृष्ठभूमि में अपराध और राजनीति के गठबंधन को दर्शाती इस फिल्म के केंद्र में है सुलेमान अली। फिल्म बताती है कि कैसे वह एक मामूली गुंडे और स्मगलर से उस इलाके का मालिक बना। अपने ईसाई साथी डेविड की बहन से उसने शादी तो कर ली लेकिन किसी वजह से डेविड से उसकी दुश्मनी हो गई। बरसों बाद जेल में बंद अली को मारने का काम पुलिस और इलाके के नेता ने डेविड के ही बेटे फ्रेडी को सौंपा है। क्या फ्रेडी अली को मारेगा? मार पाएगा?
अपने तेवर, फ्लेवर और कलेवर से यह ‘गॉडफादर’ सरीखी फिल्म है। एक आम आदमी के अपराध की दुनिया के शिखर तक पहुंचने के बरअक्स उसकी ज़ाती ज़िंदगी को दिखाती इस किस्म की फिल्मों में उसके परिवार, दोस्तों, दुश्मनों आदि से उसके बदलते रिश्तों को खंगाला जाता है। साथ ही इस किस्म की फिल्मों में उस दौर के समाज की झलक और कानून-व्यवस्था से जुड़े अच्छे-बुरे लोगों का भी चित्रण होता है। इस नज़रिए से देखें तो यह फिल्म नया कुछ नहीं देती। ‘नायकन’, ‘सत्या’, ‘कंपनी’, ‘सरकार’ जैसी फिल्मों में हमने यह सब देखा है। लेकिन आप इस फिल्म को नकार बिल्कुल नहीं सकते।
दरअसल यह फिल्म खोखली या कमज़ोर नहीं है। यह दिखाती है कि कैसे कभी केरल के उस इलाके में दो धर्मों के लोग आपस में मिल-जुल कर रहते थे और कैसे ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उन्हें एक-दूसरे से दूर कर डाला। अपराध और राजनीति के गठजोड़ को दिखाने के साथ-साथ यह फिल्म इस गठजोड़ की उस कड़वी सच्चाई को भी दिखाती है कि असल ताकत तो राजनेताओं के हाथ में रहती है जो अपने स्वार्थ के लिए अपराधियों को पालते, पोसते, पैदा करते और मरवाते हैं।
फिल्म की पटकथा कहीं-कहीं कमज़ोर पड़ती है। निर्देशक महेश नारायणन असल में फिल्म संपादक रहे हैं। बहुतेरी फिल्मों को कसा है उन्होंने। लेकिन इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जिसकी ज़रूरत नहीं थी। साफ है कि अपने ही रचे को एडिट करते समय वह मोह में पड़ गए। हालांकि बतौर निर्देशक उनका काम उम्दा रहा है। केरल के सामाजिक ताने-बाने को बखूबी दिखाने के साथ-साथ वहां के जन-जीवन को भी उन्होंने संजीदगी से उकेरा है। सिनेमैटोग्राफर सानु वर्गीज़ ने उनका बखूबी साथ निभाया है। शुरूआत में तो कई मिनट लंबा एक शॉट है जो फिल्म का समां बांध देता है।
फहाद फासिल बेहतरीन अभिनेता हैं। अपने भाव-भंगिमाओं से वह किरदार को इस कदर विश्वसनीय बना देते हैं कि उनका पर्दे पर न होना अखरने लगता है। निमिषा सजायन, विनय फोरट, जलजा समेत बाकी कलाकार भी अच्छा काम करते दिखे। उम्दा सिनेमा के रसिकों को यह फिल्म देखनी चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-15 July, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)