-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
इंदौर के एक मध्यवर्गीय परिवार का बेटा कपिल दुबे और बहू सौम्या चावला दुबे को शादी के दो साल बाद भी घर में एकांत नहीं मिल पा रहा है। खुद का मकान लेने के अपने सपने को पूरा करते-करते ये लोग एक अनोखा रास्ता चुन तो लेते हैं लेकिन उस रास्ते पर चलते हुए ये दोनों एक-दूसरे से, अपनों से ही दूर होने लगते हैं। क्या मिल पाता है इन्हें अपना मकान? क्या मिल पाता है इन्हें एक-दूसरे का साथ?
रंग-बिरंगे किरदारों के ज़रिए मध्यवर्गीय परिवारों और उनके इर्दगिर्द की कहानियां कहना निर्देशक लक्ष्मण उटेकर को बखूबी आता है। अपनी पिछली दोनों हिन्दी फिल्मों ‘लुका छुपी’ (रिव्यू-सेफ गेम है ‘लुका छुपी’) और ‘मिमी’ (रिव्यू-मंज़िल तक पहुंचाती ‘मिमी’) में वह अपना यह हुनर दिखा चुके हैं। इस फिल्म ‘ज़रा हटके ज़रा बचके’ में भी उन्होंने एक आम परिवार की आम समस्याओं को दिखाने का जतन किया है। लेकिन यह फिल्म लेखन के स्तर पर उनकी पिछली दोनों फिल्मों से कमज़ोर है। संयुक्त परिवार के इकलौते बेटे की पत्नी अपना खुद का मकान चाहती है लेकिन मकान मिलने के बाद वह बूढ़े सास-ससुर को किसके सहारे छोड़ कर जाएगी? इस नज़र से देखें तो फिल्म की नायिका एक बुरी बहू साबित हो सकती है। फिर मकान पाने के लिए ये लोग जिस जुगाड़ के रास्ते पर चल पड़ते हैं वह ‘फिल्मी’ अधिक और व्यावहारिक कम लगता है। जिस तरह से ये लोग अपने ही परिवार से बातें छुपाते फिरते हैं, उससे भी फिल्म का स्वाद खराब होता है।
इस फिल्म को रोमांटिक और कॉमिक फिल्म के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इसकी स्क्रिप्ट में वह रवानगी नहीं है जो देर तक बांधे रख सके। कई जगह बेवजह के सीन डाले गए और उन्हें खींचा भी गया। इन दृश्यों से तुरंत हंसी भले ही आए लेकिन हैं ये खोखले ही। फिल्म को रोचक बनाए रखने का जो काम स्क्रिप्ट को करना चाहिए था, उसे रंग-बिरंगे किरदारों ने किया है। लेकिन इन किरदारों की हरकतें कई जगह गैरज़रूरी लगीं। संवाद हल्के रहे। इंदौरी ज़ुबान का उम्दा इस्तेमाल हुआ है फिल्म में। और हां, सभी पंजाबी दारूबाज नहीं होते, यह बात मुंबईया लेखकों के पल्ले कब पड़ेगी? फिल्म में सिस्टम की कमज़ोरियों और भ्रष्टाचार की बात भी है लेकिन दो पटरियों पर पांव रखने का संतुलन यह नहीं बना पाई है। अपने मिज़ाज से इस फिल्म का नाम ‘लुका छुपी 2’ हो सकता था। मौजूदा नाम तो इस पर फिट ही नहीं बैठ रहा है।
विक्की कौशल और सारा अली खान की कैमिस्ट्री बढ़िया रही है। लेकिन जहां विक्की का किरदार उठ नहीं पाया वहीं सारा कई जगह अपने किरदार को संभाल नहीं सकीं। उन्हें पंजाबी दिखाने के लिए बेवजह के पंजाबी शब्द देने की ज़रूरत नहीं थी। फिल्म को असली सहारा तो दिया है इसके सहायक कलाकारों ने। विक्की के पिता बने आकाश खुराना को देख कर हैरानी हो सकती है कि 24 बरस पहले वह ‘सरफरोश’ में आमिर खान के पिता बन चुके हैं। यही हैरानी सारा की मां के किरदार में सुष्मिता मुखर्जी को देख कर भी हो सकती है जिन्होंने खुद को बड़ी ही सफाई से एक पंजाबी महिला के रूप में ढाला। विक्की की मां के रोल में अनुभा फतेहपुरिया, मामा बने नीरज सूद, मामी बनीं कनुप्रिया पंडित, सारा के पिता बने राकेश बेदी, चौकीदार के रोल में शारिब हाशमी, विक्की के वकील दोस्त बने हिमांशु कोहली, महज़बीन बनीं सृष्टि रिंदानी, डिंपी सर बने डिंपी मिश्रा आदि अपने-अपने काम को बेहतर ढंग से अंजाम देते हैं। लेकिन जो एक किरदार इस पूरी फिल्म के दौरान छाया रहा वह था दिन में सरकारी दफ्तर के चपरासी और रात में छैला बने भगवान दास का किरदार, जिसे इनामुल हक़ ने बेहद असरदार तरीके से निभाया। इंदौर की लोकेशन और कैमरावर्क उम्दा रहा। फिल्म की सवा दो घंटे की लंबाई भी अखरने लायक है। गाने अर्थपूर्ण हैं और संगीत उन्हें सुनने-गुनगुनाने लायक बनाता है।
फिल्म का नायक योग सिखाता है और अक्सर कहता है कि इस जगह पर उसे ‘ची’ (सकारात्मक उर्जा या अनुभूतियां) नहीं मिल रही। इस फिल्म को देखते हुए भी यही लगता है कि इसमें सब कुछ है, बस वह ‘ची’ नहीं है जिसकी तलाश में दर्शक सिनेमाघरों तक जाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-02 June, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
एकदम सटीक एंड पूर्ण रिव्यु….
ज़रूयी नहीं कि बड़े कलाकर होंगे तो वह सब अपनी छाप छोड़ने में माहिर होंगे…. लेकिन छोटे और सह कलाकार भी ऐसा काम कर जाते हैँ जिनके सहारे फ़िल्म कुछ टिक पाती है…. यही इस फ़िल्म में हुआ है…
इसी फिर पर “रहीम साहब ” का एक दोहा याद आ गया :-
“रहिमन देख बडेन, लघु न डीजे डारी।
जहाँ काम आवे सूई, का काम करे तरवारी।।
बेदी जी को काफी अरसे बाद बड़े परदे पर देखना सुखद रहा…