-दीपक दुआ…
जम्मू से चल कर मां वैष्णो के पहले दर्शन कौल कंडोली में करने के बाद अब हमारी गाड़ी कटरा की तरफ बढ़ रही थी। (पिछला आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) लेकिन कटरा पहुंचने से पहले हमें अभी दो जगह और जाना था। बहुत जल्द हम अपने अगले पड़ाव यानी देवा माई मंदिर पर जा पहुंचे। यह जगह जम्मू से लगभग 44 किलोमीटर दूर है और यहां से कटरा सात-आठ किलोमीटर आगे है। मुख्य सड़क से बाईं ओर ऊपर की तरफ जाने वाली सड़क से जब हम लोग यहां पहुंचे तो यहां कोई भी मौजूद नहीं था। दरअसल पुराने ज़माने में तो भक्तगण यहां फिर भी आते थे लेकिन बढ़ती परिवहन सुविधाओं ने वैष्णो देवी की यात्रा का जो स्वरूप बदला है उससे बहुत सारी पारंपरिक चीज़ें पीछे छूट गई हैं और छूटती जा रही हैं। देवा माई असल में माता के अनन्य भक्त पंडित श्रीधर के वंशज पंडित श्यामी दास का घर था और मान्यता है कि माता ने उनके घर में कन्या-रूप में जन्म लिया था जिसका नाम पंडित जी ने माई देवा रखा था।
यहीं मांगी थी भैरों नाथ ने मांस-मदिरा
यहां ज़्यादा वक्त न बिता कर अब हम कटरा की ओर बढ़ चले। कटरा में ही वह महत्वपूर्ण जगह है जहां पर मां वैष्णो की कथानुसार मां ने कन्या-रूप में पंडित श्रीधर के घर पर भंडारे का आयोजन किया था और जहां भैरों नाथ ने उनसे मांस और मदिरा की मांग की थी जिसके बाद माता वहां से अंतर्ध्यान होकर बाण गंगा, चरण पादुका, अर्द्धकुंवारी होते हुए उस गुफा में जा विराजीं जिसके दर्शनों के लिए लोग इस यात्रा पर जाते हैं। इस जगह का नाम है ‘भूमिका मंदिर’ और यहां भी बहुत कम यात्री आते हैं। सुबह सवा आठ बजे हम लोग यहां पहुंच चुके थे। कुछ ही देर में दर्शन हो गए और अब हमें पहुंचना था अपने होटल जिसका इंतज़ाम मैं पहले ही कर चुका था।
होटल मिला पर कमरा नहीं
जैसे कि मैंने पहले ही ज़िक्र किया कि इससे पहले मैं कई बार वैष्णो देवी जा चुका था और लगभग हर बार मैं कटरा बस स्टैंड के पास स्थित जम्मू-कश्मीर पर्यटन विकास निगम के उस होटल में ठहरता था जो ‘ज्वैल्स’ रेस्टोरैंट के बगल में है। कटरा में मेरा नाश्ता, लंच, डिनर भी हमेशा ‘ज्वैल्स’ में ही होता था। यहां खाना महंगा ज़रूर है लेकिन खाने की ढेरों वैरायटी हैं और हर चीज़ बहुत स्वादिष्ट और साफ-सुथरी मिलती है। इस सैल्फ-सर्विस वाले रेस्टोरैंट का भव्य लुक मुझे बहुत पसंद है। लेकिन इस बार चूंकि मैं परिवार के साथ था इसलिए मेरा इरादा जम्मू-कश्मीर पर्यटन विकास निगम के भव्य होटल ‘सरस्वती’ में रुकने का था जो कि कटरा से बाण-गंगा वाले रास्ते पर जाते हुए दाईं तरफ आता है। हमारे ड्राईवर साहब ने सुबह-सुबह खाली पड़े बाज़ार से होते हुए हमें चंद ही मिनटों में यहां पहुंचा दिया। लेकिन अभी एक चौंकाने वाली खबर मिलनी बाकी थी।
मजबूरी में लेना पड़ा शानदार कमरा
दरअसल होटल में चेक-इन करने का वक्त आमतौर पर दोपहर 12 बजे होता है और हम 9 बजे से पहले ही यहां पहुंच चुके थे। पता चला कि हमने जो डीलक्स रूम ऑनलाइन बुक करवाया था वो अभी खाली नहीं हुआ है। स्टैंडर्ड रूम खाली था लेकिन वह बहुत छोटा लग रहा था। पता चला कि इनके पास एक एग्ज़िक्यूटिव रूम भी है जो खाली है। उसका किराया तो काफी ज़्यादा था पर जब कमरा देखा तो हम सब के दिल खिल गए। इतना लंबा कमरा कि बच्चे पकड़म-पकड़ाई खेल लें और कमरे के सामने अपना प्राइवेट लॉन। कहने की ज़रूरत नहीं कि अगले पांच मिनट में हम इस रूम को अपना बना चुके थे। जल्दी से नहा कर, लॉन में थोड़ा फोटो-सैशन कर के और इसी होटल के रेस्टोरेंट में कुछ पराठों का उद्धार करने के बाद अब हम वैष्णो देवी की चढ़ाई चढ़ने को तैयार थे। पहले हमने कटरा बस स्टैंड के पास वाले दफ्तर में जाकर यात्रा की पर्ची कटवाई। फिर पास ही स्थित वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के होटल निहारिका में पता किया कि ऊपर भवन पर स्थित कमरों में से किसी की बुकिंग मिल जाए जो मुझे ऑनलाइन नहीं मिल पाई थी। लेकिन पता चला कि सारे कमरे बुक हैं। थोड़ी चिंता तो हुई कि भवन एरिया में अगर भीड़ हुई तो कहीं छोटे बच्चों के साथ दिक्कत न हो लेकिन फिर सब कुछ माता के भरोसे छोड़ कर होटल लौटे और दो बैग लाद कर निकल पड़े। लेकिन हमें नहीं पता था कि भवन पर हमें सचमुच ऐसी दिक्कत आने वाली है जिसे हम लंबे समय तक नहीं भूल पाएंगे। पढ़िएगा अगली किस्त में, इस पर क्लिक कर के।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)