-दीपक दुआ…
दोपहर करीब सवा बारह बजे हम लोग अपने होटल से वैष्णो देवी की चढ़ाई के लिए निकल पड़े। सड़क पर आते ही ऑटो-रिक्शा वाले ‘बाण गंगा दस रुपए सवारी’ कह कर पीछे पड़ गए लेकिन मैं हमेशा ही जाते समय तो पैदल ही गया हूं। (पिछला आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) तो, गोलगप्पे खाते और बाईं तरफ नीचे के सुंदर दृश्य देखते हुए करीब 15 मिनट में हम लोग वहां पहुंच गए जहां से वैष्णों देवी की यात्रा की औपचारिक चढ़ाई शुरू होती है और जिस जगह का नाम है-दर्शनी दरवाजा। पर अभी तो सिर्फ शुरूआत हुई थी, सफर तो अभी बाकी था।
बाण गंगा करे मन को चंगा
दर्शनी दरवाजे पर हमारी और हमारे सामान की चैकिंग हुई। यहां से चले तो लगभग 15 मिनट बाद हम लोग बाण गंगा पर थे। पानी देखते ही बच्चे मचल उठे कि नीचे चल कर नहाएंगे। लेकिन उन्हें समझाया कि हम लोग ज़्यादा कपड़े साथ नहीं लाए हैं। थोड़ी देर रुक कर यहां के नज़ारे देखे, बाण गंगा मंदिर में माथा टेका और आगे चल पड़े। यहां से सीढ़ियों वाला एक रास्ता भी बाईं तरफ से जाता है। सीढ़ियां समय तो बचा देती हैं लेकिन सीढ़ियां चढ़ने में जो ज़ोर लगता है उसके बाद टांगों में दर्द आता है। इसलिए सीढ़ियां चढ़ने की बजाय वापसी में सीढ़ियां उतरने की सलाह अनुभवी लोग देते हैं। यहां से अगर कोई पैदल न जाना चाहे तो खच्चर की सवारी करके या फिर दो लोगों द्वारा कुर्सीनुमा पालकी पर बैठ कर भी जा सकता है। छोटे बच्चों और आपके सामान को अपने कंधे पर उठा कर चलने वाले पिठ्ठू भी यहां मिल जाते हैं। बच्चों से पूछा तो उन्होंने कहा कि हम तो पैदल ही चलेंगे। हमने भी यह सोच कर हामी भर दी कि अगर बच्चे रास्ते में कहीं थक गए तो खच्चर-पिठ्ठू वगैरह तो कहीं भी मिल जाते हैं। यहां से आगे वाले मोड़ पर दाईं तरफ एक झरना-सा गिरता है जहां का पानी बाण गंगा की तुलना में काफी ज़्यादा और साफ है और वैष्णो देवी जाने वाले काफी यात्री यहां पानी में नहाते व अठखेलियां करते हैं। नहाए तो हम यहां भी नहीं लेकिन रुक कर फोटो वगैरह ज़रूर खींचे।
खाते-पीते चढ़ते जाना
हम लोग बहुत धीरे-धीरे, जगह-जगह रुक कर, नज़ारे देखते हुए, फोटो खींचते हुए आराम से चल रहे थे। थोड़ी देर के बाद हम चरण पादुका मंदिर के सामने थे। यहां दर्शन करके आगे बढ़े तो सब को भूख लगने लगी थी। सोचा था कि अर्द्धकुंवारी पहुंच कर श्राइन बोर्ड के भोजनालय में खाना खाएंगे लेकिन वहां पहुंचने में अभी काफी वक्त था। सो, एक दुकान में चार प्लेट मैगी बनवा ली। बच्चे तो वैसे भी मैगी जैसी चीज़े खुश होकर खाते हैं। हम दोनों ने मैगी के बाद चाय का पैट्रोल भी अपनी टंकी में भर लिया। काफिला फिर चलने लगा। रास्ते में श्राइन बोर्ड के छोटे-छोटे कैफेटेरिया आते हैं जहां बैठ कर सुस्ताने, प्राकृतिक सौंदर्य देखने और कॉफी या सॉफ्ट-ड्रिंक पीने का भी अपना ही मज़ा है। लगभग चार बजे हम लोग अर्द्धकुंवारी से पहले वाले उस मोड़ पर पहुंच चुके थे जहां से एक नया रास्ता सीधा भवन को को जाता है। यहां से भवन तक जाने के लिए बैटरी से चलने वाली छोटी गाड़ी भी मिल जाती है। मगर अर्द्धकुंवारी की गुफा के दर्शनों के बिना हमें आगे जाना नहीं था।
अर्द्धकुंवारी लगती है प्यारी
अर्द्धकुंवारी पहुंचते ही हमने गुफा के दर्शनों के लिए टोकन ले लिया। यहां पर वह प्राचीन गुफा है जिसके बारे में मान्यता है कि मां वैष्णों ने उसमें नौ महीने तक निवास किया था। इस गुफा में झुक कर और लगभग रेंगते हुए जाना पड़ता है। इसमें जाने के लिए काउंटर से टोकन मिलता है जिस पर ग्रुप नंबर लिखा होता है। गुफा के बाहर सिर्फ अगले दो-तीन ग्रुप वालों को ही लाइन में लगने को कहा जाता है। बाकी लोग यहां-वहां बैठ कर इंतज़ार करते हैं। भारी भीड़ के दिनों में मैंने यहां पर छह-आठ घंटे भी इंतज़ार किया है और दो-एक बार गुफा के दर्शनों की बजाय यहां स्थित एक मंदिर में माथा टेक भी आगे बढ़ा हूं। इस मंदिर में जाने के लिए कोई लाइन या नंबर नहीं लगता है। उस दिन भीड़ कम थी इसलिए पौने घंटे में ही हमारा गुफा में जाने का नंबर आ गया और जल्दी ही हम आगे चलने के लिए तैयार हो गए।
चले भवन की ओर
अर्द्धकुंवारी से भवन जाने के दो रास्ते हैं। एक तो पुराना रास्ता है जो सांझी छत, हाथी मत्था होते हुए जाता है जिसकी चढ़ाई बहुत सख्त है। और एक नया रास्ता है जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया। यहां से एक 25 मीटर लंबी सुरंग ने हमें उसी नए रास्ते पर पहुंचा दिया। यह रास्ता ऊंचा-नीचा न होकर लगभग सपाट है इसलिए इस पर चलते समय ज़्यादा थकान नहीं होती। यहां से बाईं तरफ नीचे के खूबसूरत नज़ारे भी दिखते रहते हैं। इस रास्ते पर खाने-पीने की दुकानें भी कम हैं और सामने से दर्शन करके लौटने वाले लोगों की गिनती तो बेहद कम। साथ ही इस रास्ते पर खच्चरों के चलने की भी मनाही है सो यह रास्ता ज़्यादा सुगम और साफ-सफाई वाला भी है। थोड़ी ही देर में सूरज ढल गया और हमें ठंड भी लगने लगी। बैग खोल कर जैकेटें निकाली गईं और कारवां आगे बढ़ता रहा। हम दोनों पति-पत्नी को हल्की थकान भी होने लगी थी लेकिन बच्चे अपनी मस्ती में ऐसे चले जा रहे थे जैसे दिल्ली की गलियों में खेलते हैं। कुछ ही देर में भवन सामने दिखने लगा जहां एक इम्तिहान हमारा इंतज़ार कर रहा था। पढ़िएगा अगली किस्त में, इस पर क्लिक कर के।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)