-दीपक दुआ…
पिछले आलेख में आपने पढ़ा कि कटरा के आसपास काफी घूमने के बाद अब हम लोग पटनीटॉप जाने के लिए तैयार हो चुके थे। पटनीटॉप दरअसल कटरा से करीब 85 किलोमीटर दूर जम्मू-श्रीनगर हाईवे पर एक छोटा-सा हिल-स्टेशन है। (पिछला आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) पहले यह जगह ज़्यादा मशहूर नहीं थी लेकिन 90 के दशक में कश्मीर घाटी में बढ़ते आतंकवाद के बाद इसे एक वैकल्पिक हिल-स्टेशन के तौर पर विकसित किया गया और धीरे-धीरे यह मशहूर होता चला गया। मैं यहां पहली बार 1998 में अपने दोस्त विपुल के साथ आया था। तभी से मेरी तमन्ना थी कि कभी इस जगह पर एक रात गुज़ारी जाए। अभी भी बहुत सारे लोग टैक्सी या टूरिस्ट बसों द्वारा कटरा से सुबह चल कर यहां आते हैं और शाम तक यहां से लौट जाते हैं। लेकिन हमें तो यहां भरपूर आनंद लेना था।
खूबसूरत जखानी पार्क
कटरा से पटनीटॉप जाने के लिए जम्मू की तरफ नहीं जाना पड़ता बल्कि एक छोटी सड़क से होते हुए जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर पहुंचा जा सकता है। हम लोग तकरीबन एक घंटे में उधमपुर जा पहुंचे। अपने ड्राईवर साथी मोनू को हमने पहले ही कह दिया था कि रास्ते में जखानी पार्क देखते हुए चलेंगे जिसका ज़िक्र बीती रात चाय की दुकान वाले शख्स ने किया था। उधमपुर से करीब तीन किलोमीटर पर दाईं तरफ यह पार्क दिखा। जम्मू-कश्मीर के फ्लोरीकल्चर विभाग के इस पार्क में प्रवेश के लिए मामूली-सा शुल्क लगता है। लेकिन टिकट-काऊंटर पर अपना परिचय देने और बीती रात के चाय की दुकान वाले भाई साहब का ज़िक्र करते ही उन्होंने बड़े आदर के साथ बिना किसी टिकट के अंदर जाने दिया। बहुत ही खूबसूरत और काफी विशाल इस पार्क में कुछ देर घूमने और फोटो खींचने के बाद हम यहां से चल पड़े। आगे एक मीठा पड़ाव जो हमारा इंतज़ार कर रहा था।
कुद का प्रेम-पतीसा
जखानी पार्क से निकलने के बाद आसपास के खूबसूरत नज़ारे देखते हुए हम पटनीटॉप की ओर बढ़ चले। हम लोगों ने यहां एक बात और नोट की कि इस पूरे रास्ते हमारे मोनू ड्राईवर लगातार अपने मोबाइल फोन के ईयरफोन को कानों पर लगा कर हौले-हौले किसी से बातें करते रहे और इसके बावजूद इन पहाड़ी रास्तों पर उनकी ड्राईविंग में रत्ती भर की कमी नहीं दिखी। थोड़ी ही देर में हमारी गाड़ी एक शहर के करीब जा पहुंची। यहां हर तरफ ‘प्रेम पतीसा’ के बोर्ड लगे हुए थे ठीक वैसे जैसे आगरा शहर में हर तरफ ‘पंछी पेठा’ के बोर्ड लगे होते हैं जिन्हें देख कर एक बार मैंने लिखा था कि आगरा शहर में इतने तो पंछी नहीं होंगे जितने ‘पंछी पेठा भंडार’ हैं। पूछने पर मोनू ने बताया कि इस जगह का नाम है-कुद और यहां प्रेम हलवाई का पतीसा (बेसन से बनने वाली बरफी या सोन-पापड़ी जैसी मिठाई) बहुत मशहूर है। मोनू ने एक दुकान के सामने गाड़ी लगा दी और बताया कि यहां की सबसे पुरानी और असली दुकान यही है। मैंने गौर किया कि यहां पर पतीसा शहरों की तरह बरफी के आकार में काट कर नहीं बल्कि एक बड़े चक्के की तरह डिब्बों में पैक किया जा रहा था। मैंने जल्दी से उतर कर आधा किलो का एक डिब्बा लिया और हम फटाफट आगे चल पड़े ताकि हमारी गाड़ी से ट्रैफिक जाम न हो। गाड़ी में बैठते ही डिब्बा खोला और हल्के गर्म पतीसे का एक टुकड़ा मुंह में डालते ही सभी के मुंह से निकला-वाह, थोड़ा और…। अगले 15 मिनट में हम वह डिब्बा खाली कर चुके थे और खुद से यह वादा भी, कि वापसी में यहां से घर के लिए पतीसा पैक करवा कर ले चलेंगे।
पहले नाग मंदिर फिर पटनीटॉप
अब हम लोग बस पटनीटॉप पहुंचने ही वाले थे सो मोनू से इस मुद्दे पर बात होने लगी कि कहां-कहां घूमना है। मोनू ने बताया कि एक तो नाग मंदिर ही है लेकिन वह रास्ते में ही पड़ेगा और अगर हम चाहें तो पहले वहां दर्शन करते हुए फिर आगे जा सकते हैं। आइडिया बुरा नहीं था क्योंकि अभी दिन के साढ़े बारह ही बजे थे। फिर पटनीटॉप में हमारी कॉटेज पहले से ही बुक थी सो कोई जल्दी भी नहीं थी। नाग मंदिर पहुंचे तो देखा कि वहां फोटो खींचने की मनाही का एक बोर्ड लगा हुआ देखा। अब अपन ठहरे नियम-कायदे मानने वाले प्राणी, सो इस प्राचीन मंदिर के दर्शन किए और कुछ ही देर में पटनीटॉप में जम्मू-कश्मीर पर्यटन विकास निगम के शानदार अल्पाइन होटल कॉम्प्लेक्स में जा पहुंचे।
उम्मीद से बढ़ कर हुई आवभगत
दरअसल 1998 में यह जगह मुझे बेहद पसंद आई थी और दो महीने पहले यहां का प्रोग्राम बनाते समय ही मैंने यहां पर एक कॉटेज बुक करा ली थी। यहां के एक बड़े अधिकारी से फोन पर बात और परिचय भी हो चुका था। यहां पहुंचते ही मैंने रिसेप्शन पर उनके बारे में पूछा तो जवाब मिला कि वह तो छुट्टी पर गए हैं लेकिन उन्होंने आपके बारे में बता दिया था। तुरंत एक सहायक ने हमें कॉटेज नंबर 3 तक पहुंचाया और कहा कि किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो इंटरकॉम से रिसेप्शन पर फोन कर दीजिएगा। इतने में गाड़ी से हमारा सामान भी आ गया। कॉटेज देख कर हैरानी हुई। सलीके से सजे हुए साफ-सुथरे दो बेडरूम, एक ड्राईंगरूम, दो बाथरूम, एक किचन। लेकिन हमने तो सिर्फ एक कमरे वाली कॉटेज बुक कराई थी, यहां तो तीन कमरे हैं। उस सहायक से पूछा तो वह हंसते हुए बोला कि हमारे साहब (जो छुट्टी पर गए थे) ने कहा था कि आपको यहां पर ही ठहराना है और आपका पूरा ध्यान रखना है। उसने यह भी बताया कि एक कमरे वाली कॉटेज यहां से दूर हैं और ऑफ-सीज़न होने के कारण दो-तीन कॉटेज को छोड़ कर बाकी सब खाली हैं। वाह, यह तो बढ़िया हुआ। अभी हमें यहां कई खूबसूरत नज़ारे देखने थे और अपनी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हों में से कुछ यहीं गुज़ारने थे। लेकिन हमें क्या पता था कि हमारे अरमानों पर ‘पानी’ भी पड़ने वाला है। पढ़िएगा अगली किस्त में, इस पर क्लिक कर के।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)