-दीपक दुआ…
पिछले आलेख में आपने पढ़ा कि कटरा से चल कर उधमपुर के जखानी पार्क में घूमने और कुद का मशहूर व स्वादिष्ट ‘प्रेम पतीसा’ खाते हुए हम लोग पटनीटॉप की एक बड़ी-सी कॉटेज में पहुंच चुके थे। हमारे पास पूरे 24 घंटे थे और यहां घूमने के लिए इतना वक्त काफी था। लेकिन हमें क्या पता था कि हमारे अरमानों पर ‘पानी’ पड़ने वाला था (पिछला आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें) कॉटेज में सामान रख कर हम लोग फौरन बाहर आ गए ताकि लंच करके घूमने निकल सकें। यहां पर एक कॉटेज से दूसरा कॉटेज कम से कम दो सौ मीटर दूर था। ठीक सामने एक बड़ा मैदान था जिसमें दो-तीन अस्थाई दुकानें सजी हुई हैं। एक कश्मीरी ड्रैस में फोटो खींचने वाले की दुकान थी और एक-दो शॉल-सूट बेचने वालों की। अभी हम यहां का जायज़ा लेते हुए फोटो खींच ही रहे थे कि मैदान के उस पार खड़े घोड़े वाले हमारे पास आकर हमें जंगल की सैर करने के लिए मनाने लग गए। हमने मना किया तो उनमें से एक बोला-सर आप लोग आते हो तो हमारे बच्चे रोटी खाते हैं। अभी सीज़न नहीं है तो सुबह से खाली बैठे हैं। उसकी इस इमोशनल ब्लैकमेलिंग ने असर किया और श्रीमती का आदेश पा कर हम चार जने तीन घोड़ों पर सवार होकर जंगल की सैर पर चल दिए।
दाल-चावल और बुलबुल का बच्चा
लेकिन हमें अभी भी तो लंच करना था। घोड़े वालों ने इसका भी समाधान कर दिया। बोले कि रास्ते में ही आपको देसी खाना खिलाएंगे, यहां के रेस्टोरेंट से भी अच्छा। अब ऐसी बात सुन कर अपना चटोरा मन भला कैसे न मानता। थोड़ी दूर चलने के बाद हम लोग एक पार्क के पास पहुंचे जिसके अंदर और भी सैलानी थे और बाहर कपड़ों व खाने-पीने की कई दुकानें। कपड़े की दुकानों के बाहर खड़े लड़के ‘बुलबुल का बच्चा देखो’ कह कर लुभा रहे थे। दरअसल ये लोग बहुत ही मुलायम कंबल, शॉल, मफलर आदि बेचते हैं जिसे ये लोग बुलबुल का बच्चा कह कर सैलानियों को रिझाने का काम करते हैं और बहुत ही महंगे दामों पर हल्की क्वालिटी का माल पकड़ा देते हैं। घोड़े वालों ने हम से कहा कि आप यहां आराम से खाना खाइए, पार्क में घूमिए, हम लोग यहीं खड़े हैं। दुकानदार से पूछा तो पता चला कि मैगी मिलेगी और दाल-चावल। सब का मन दाल-चावल पर राज़ी हुआ जिसके बाद सामने वाले पार्क की सैर हुई, बच्चों ने झूलों का आनंद लिया और एक बार फिर हम लोग घोड़ों पर सवार होकर चल पड़े।
कश्मीर की कली हूं मैं
जंगल के ऊंचे-नीचे रास्तों पर करीब आधा घंटे घूमने के बाद अब हम लोग एक बार फिर से उसी जगह पर थे जहां से चले थे। हमें घोड़ों से उतरता देख कर मैदान में बैठे फोटोग्राफर साहब पास आ गए। दोनों बच्चों की कश्मीरी ड्रैस में जम कर फोटोग्राफी हुई और तय हुआ कि अब चल कर थोड़ा आराम किया जाए और नत्था टॉप वगैरह कल सुबह चलेंगे। फोन करके मोनू ड्राईवर को बोल दिया कि अब आज तुम्हारी ज़रूरत नहीं, जाओ ऐश करो। हालांकि मन में तो यही था कि थोड़ी देर आराम करने के बाद आसपास की सैर को चलेंगे लेकिन ‘ऊपर वाले’ को कुछ और ही मंजूर था।
अरमानों पर पड़ा पानी
हमें अपने कॉटेज में लौटे थोड़ी ही देर हुई थी कि अचानक बादल घिर आए। पहले सिर्फ ओले पड़े और फिर मूसलाधार बारिश होने लगी। कॉटेज के दोनों बैडरूम में बिजली से गर्म होने वाले कंबल बिछे हुए थे। स्विच ऑन करते ही वे कुछ देर में गर्माहट देने लगे। हम लोग उन कंबलों में दुबके खिड़की से बाहर के नज़ारे देखने लगे। करीब घंटे भर बाद बारिश रुकी तो मन कुछ गर्मागर्म खाने को करने लगा। कॉटेज की किचन का दौरा किया तो गैस-चूल्हा, सिलैंडर, कुछ बर्तन, मसाले, चीनी-चाय की पत्ती देख कर मन में खुराफाती विचार आने लगे। हमारे कॉटेज के सामने वाले मैदान के उस पार एक छोटा रेस्टोरैंट-सा दिख रहा था। बच्चों को कॉटेज में छोड़ हम दोनों वहां पहुंचे तो पता चला कि उनके पास सिवाय मैगी और दूध के और कुछ नहीं था। उनसे एक लिटर दूध और मैगी के कुछ पैकेट लेकर आए और किचन में फटाफट पापाज़ स्पेशल मसाला मैगी के संग हमारे लिए चाय और बच्चों के लिए दूध तैयार हो गया। अभी खा-पीकर निबटे ही थे कि अचानक फिर से बारिश होने लगी और लाइट भी चली गई। कॉटेज के साथ-साथ अब हमारी भी बत्ती गुल होने वाली थी।
बत्ती गुल डरना चालू
लाइट गायब हुई तो थोड़ी देर पहले जो बच्चे बुलंद आवाज़ में ‘हम तो अलग कमरे में सोएंगे’ का नारा लगा रहे थे वे इस अंधेरे, सुनसान माहौल और बाहर लगातार होती बारिश से डर कर अब हमें चिपक चुके थे। कॉटेज में काफी सारी मोमबत्तियां मौजूद थीं। उन्हें जला कर रोशनी की ही थी कि अचानक कॉटेज के दरवाज़े के पास अजीब-सी गुर्राहट सुनाई देने लगी जिसे सुन कर बच्चों की ही नहीं हमारी भी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। पत्नी बोलीं-लगता है कोई जंगली जानवर है, दरवाज़ा मत खोलना। बगल वाली खिड़की से झांक कर देखा तो एक नहीं, दो-तीन जानवरों के होने का अहसास हुआ। इससे पहले कि हमारी हवा और ज़्यादा टाइट होती, अचानक से लाइट आ गई और हमने देखा कि दो-तीन झबरू कुत्ते बारिश से बचने के लिए हमारी कॉटेज के बाहर दुबके हुए हैं और यह उन्हीं की आवाज़ थी। हमारी जान में जान आई और अपने डर पर खिसियानी हंसी भी। थोड़ी देर बाद कॉटेज के अटेंडैंट ने आकर डिनर के लिए पूछा लेकिन खाना खाने की किसी की भी इच्छा नहीं थी सो, उसे विदा कर हमने गर्म कंबलों के अंदर दुबकना ज़्यादा सही समझा। अगले दिन के लिए हमने क्या सोचा था लेकिन असल में क्या किया, यहां क्लिक करके पढ़िए, जो इस श्रृंखला की आखिरी किस्त है।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bhot hi badiya safar karaya aapne apni chatpati baaton se.
shukriya…