-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘वीरे दी वेडिंग’-लगता है या तो वीर नाम के किसी पंजाबी लड़के की शादी होगी या किसी के ‘वीर’ (पंजाबी में भाई) की। लेकिन यहां एक लड़की की शादी है और उसकी तीन सहेलियां इस शादी के लिए आई हुई हैं। ये चारों लड़कियां पुरानी दोस्त हैं, चड्डी-बड्डी, ब्रा-ब्रो टाइप की। ये एक-दूसरे को वीरे (भाई, ब्रो) कहती हैं।
इन चारों में से एक वकील है। तलाक-स्पेशलिस्ट, जो अपनी मां के कहने पर शादी के लिए लड़के देख रही है। दूसरी अपने पिता की मर्जी के खिलाफ किसी गोरे से शादी करके विलायत में रह रही है और एक बच्चे की मां है। तीसरी की शादी में उसके पिता ने साढ़े तीन करोड़ रुपए खर्च कर दिए पर वह छह महीने में ही अपने पति को छोड़ कर वापस आ गई। चौथी, जिसकी शादी है, वो सिर्फ अपने लवर की खुशी के लिए शादी कर रही है।
शादी और रिश्तों को लेकर कन्फ्यूज़ रहने वाली युवा पीढ़ी पर हाल के बरसों में इतनी सारी फिल्में बन चुकी हैं कि अब इनमें नया कुछ कहने-दिखाने को नहीं रह गया है। लास्ट मिनट तक कन्फ्यूज़न-आगे बढ़ें या न बढ़ें। चलो, कर लेते हैं। नहीं, सब खत्म हो गया। आओ, कर ही लेते हैं। इस टाइप की फिल्मों में किरदारों की बैक-स्टोरीज़ में आमतौर पर उनके माता-पिता के झगड़े, कोई पुरानी यादें, दोस्तों का बिना शर्त वाला सपोर्ट, अंत आते-आते पुरानी गांठों का खुलना, सब सुलझ जाना किस्म की कहानी होती है। इस फिल्म में भी यही सब है और कुछ भी ऐसा नहीं जिसे नया कहा जा सके। सिवाय इसके कि यहां चारों दोस्त लड़कियां हैं और वे वो सारी हरकतें, बातें, सोच रखती-करती हैं जो आमतौर पर लड़के सोचते-करते हैं। पर फिर वही सवाल-कि क्या ये सोच और हरकतें ही लड़कियों को लड़कों के बराबर लाती हैं? ‘खुलेपन’ और ‘बराबरी’ के नाम पर लड़कों के ऐब ही अपनाने होते हैं? अगर खुद को ‘हम किसी से कम नहीं’ मानना ही है तो पहले एक-दूसरे को वीर-भाई-ब्रो कहना तो छोड़ो सखियों…!
कहानी साधारण। स्क्रिप्ट साधारण। शशांक घोष का निर्देशन भी उतना ही साधारण। संवाद भी कोई बहुत बेहतर नहीं। बल्कि कई जगह तो इतनी बातें कि-बक, बक… पक, पक… यक्क… फ…! महज दो घंटे की फिल्म भी कई जगह बेहद बोर करने लगती है। फिल्म देखते हुए आपको किसी किरदार से इश्क नहीं होता, किसी के प्रति आप भावुक नहीं होते, किसी के लिए आपके मन में संवेदनाएं नहीं जागतीं। आप हंसते जरूर हैं लेकिन उस हंसी का खोखलापन भी आपको जल्द महसूस होने लगता है।
करीना कपूर और सोनम कपूर ठीक रहीं। स्वरा भास्कर ने अपने किरदार को बखूबी पकड़ा। लेकिन याद रह जाती हैं अभिनेता टिक्कू तल्सानिया की बेटी शिखा तल्सानिया। बाकी लोग भी ठीक रहे। फिल्म में एक भी गाना ऐसा नहीं है जो सिर चढ़ सके।
चमक-दमक, रोशनी, धूम-धड़ाका, दारु, गालियां, सैक्स… क्या कुछ नहीं है इस फिल्म में। बहुत सारा ‘नैनसुख’ और ‘कर्णसुख’ देती है यह फिल्म। बस, वो ‘चरमसुख’ नहीं दे पाती जो किसी फिल्म को आपके दिल में वो वाली जगह देता है जिसे याद करके बरसों बाद भी आपको गुदगुदी होती रहे।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
Release Date-01 June, 2018
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)