-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
छिछोरे नायक को नायिका की बात दिल पर लगती है तो वह पहलवानी करने लगता है। दोनों शादी भी कर लेते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि वह पहलवानी छोड़ देता है। कुछ अर्से बाद वह लौटता है तो किसी और को नहीं बल्कि अपने-आप को जीतने के लिए।
ओह, सॉरी! यह तो सलमान खान वाली ‘सुल्तान’ की कहानी सुना दी। अब फरहान अख्तर वाली ‘तूफान’ की कहानी सुनिए।
छिछोरे नायक को नायिका की बात दिल पर लगती है तो वह बॉक्सिंग करने लगता है। दोनों शादी भी कर लेते हैं। फिर कुछ ऐसा होता है कि वह बॉक्सिंग छोड़ देता है। कुछ अर्से बाद वह लौटता है तो किसी और को नहीं बल्कि अपने-आप को जीतने के लिए।
आप पूछेंगे कि दोनों में फर्क क्या है? बिल्कुल है-वहां पहलवानी थी, यहां बॉक्सिंग है। बोलिए, फर्क है कि नहीं…?
मुंबई के डोंगरी इलाके में रहने वाला अज़ीज़ अली यानी अज्जू भाई जाफर भाई के लिए वसूली, फोड़ा-फोड़ी वगैरह करता है। एक दिन डाक्टर साहिबा ने लताड़ा तो बंदे ने अपनी ताकत बॉक्सिंग में झोंक दी। जीता, तो लोगों ने नाम दिया-तूफान। किसी वजह से उसे बॉक्सिंग छोड़नी पड़ी, बदनामी हुई सो अलग। इस बीच उसकी शादी हो गई और एक बेटी भी। पांच साल बाद वह लौटा ताकि अपने खोए नाम, खोई इज़्ज़त को पा सके।
फरहान अख्तर की सोची यह कहानी साधारण है। अपनी शुरूआत से ही यह एक साधारण किस्म का ट्रैक पकड़ती है और थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के साथ उसी पर टिकी रहती है। अंजुम रजअबली और विजय मौर्य जैसे लेखकों ने इस कहानी में ज़रूरी दावपेंच दिखाए हैं जिससे यह कहीं-कहीं ढलकने के बावजूद बोर नहीं करती और आने वाले सीक्वेंस का अंदाज़ा होने के बावजूद बांधे भी रखती है। फिर भी लगता है कि कहीं कमी रह गई। भावनाओं के उफान की कमी, एक्शन के तूफान की कमी। संवादों को ज़ोरदार ढंग से लिखे जाने की कमी भी साफ महसूस होती है। हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के प्यार में ‘लव जिहाद’ वाले एंगल को खुल कर एक्सप्लोर किया जाना चाहिए था।
निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा के निर्देशन की धार हमेशा से उनके हाथ में आई स्क्रिप्ट के वजन पर निर्भर रही है। इसीलिए वह हमें बहुत अच्छी से लेकर बहुत खराब तक फिल्में दे चुके हैं। इस बार उनके हाथ में ठीक-ठाक सी स्क्रिप्ट आई तो फिल्म भी ठीक-ठाक बनी जो न तो महानता की चोटी छूती है और न ही किसी खड्ड में गिरती है। थोड़ी एडिटिंग करके वह इसे और कसते तो यह ज़्यादा पकड़ बना पाती।
अमेज़न प्राइम पर आई इस फिल्म का कलेवर ‘गली ब्वॉय’ सरीखा है। वही मुस्लिम अंडरडॉग लड़का, वही स्ट्रगल, उसका आगे बढ़ना, चैंपियन बनना और वही रैप गाने भी। इन रैप गानों ने फिल्म को बिगाड़ा ही है। कायदे के सुरीले, अर्थपूर्ण गाने इस किस्म की फिल्म के लिए फायदेमंद होते।
फरहान अख्तर का काम प्रभावी है। अपनी बॉडी पर की गई उनकी मेहनत भी दिखती है। हां, उनकी उम्र ज़्यादा लगती है पर्दे पर। खासतौर से जब-जब वह डॉक्टर अनन्या बनीं मृणाल ठाकुर के साथ दिखे। काम मृणाल का भी अच्छा है। वह प्यारी भी लगती हैं। परेश रावल, मोहन अगाशे, सुप्रिया पाठक कपूर, दर्शन कुमार, विजय राज़ जैसे कलाकारों की मौजूदगी दृश्यों को भारी बनाती है। अज्जू के दोस्त के किरदार में हुसैन दलाल ने अपने किरदार को जम कर पकड़ा।
जो लोग राकेश ओमप्रकाश मेहरा और फरहान अख्तर की जोड़ी से एक बार फिर ‘भाग मिल्खा भाग’ वाले चमत्कार की उम्मीद रख रहे थे, यह फिल्म उन्हें निराश कर सकती है। लेकिन इसे एक साधारण मनोरंजन देने वाली साधारण किस्म की फिल्म समझ कर देखें तो यह दगा नहीं देगी, तय है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)