-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
प्रियंका मैडम, हम एक इंटरनेशनल फिल्म बना रहे हैं। बैस्टसेलर उपन्यास पर। ऐसा उपन्यास जिसे बुकर जैसा प्रतिष्ठित अवार्ड मिल चुका है। डायरेक्टर हॉलीवुड से लेंगे। कई भाषाओं में बनाएंगे, पूरी दुनिया में दिखाएंगे।
वाह, फिर तो मैं उसमें ज़रूर काम करूंगी। बल्कि मैं उसे प्रोड्यूस भी करूंगी। इतना सारा पैसा आखिर मैंने किस दिन के लिए कमाया है।
थैंक्यू मैडम, आपका नाम देख कर पब्लिक भी खुश होगी और इंटरनेशनल फिल्म है, सो क्रिटिक लोग भी भर-भर कर तारीफ करेंगे।
हा, हा, हा… हा, हा, हा…
तो लीजिए जनाब, यह फिल्म बन कर आ चुकी है। नेटफ्लिक्स ने इसे दुनिया भर में रिलीज़ किया है। कहानी कुछ यूं है-बंगलुरु के एक बिज़नेसमैन को पता चलता है कि चीनी प्रधानमंत्री भारत आ रहे हैं और वह बंगलुरु भी आएंगे। वह उनसे मिलने के लिए उन्हें एक ई-मेल भेजता है और अपनी पूरी कहानी बताता है कि कैसे वह एक गांव के बेहद गरीब घर से आता है जिसने चाय की दुकान पर नौकरी शुरू करके एक अमीर आदमी के अमेरिका-रिर्टन बेटे की ड्राईवरी की और एक दिन उस आदमी को मार कर वह उसका पैसा लेकर भाग गया और यहां आकर बिज़नेसमैन बन गया। लेकिन यह बंदा चीनी प्रधानमंत्री को यह सब क्यों लिख रहा है, यह पूरी फिल्म में… जी हां, अंत तक भी नहीं बताया गया। और क्या उसे नहीं पता कि यूं अपने किए अपराध का खुलासा उसे जेल पहुंचा सकता है? छोड़िए भी, जब उपन्यास लिखने वाले ने, उस उपन्यास पर स्क्रिप्ट रचने वाले ने, उस स्क्रिप्ट पर फिल्म बनाने वाले ने और उस फिल्म में काम करने वालों ने यह नहीं सोचा तो हम अपना माथा क्यों खराब करें। अच्छा होगा कि जो सामने है, उसके बारे में बात की जाए।
बलराम ने बचपन में एक कहानी सुनी थी कि टाइगर के खानदान में कई पीढ़ियों में सफेद टाइगर पैदा होता है। उसे लगता है कि अपने खानदान का व्हाइट टाइगर वो ही है जो ज़मींदार की गुलामी के पिंजरे से खुद को आज़ाद करा लेगा। जुगाड़ से वह ज़मींदार के घर में घुसता है, जुगाड़ से उसके छोटे बेटे का ड्राईवर बनता है और एक दिन एक बड़ा जुगाड़ करके वह अपना बिज़नेस खड़ा कर लेता है।
फिल्म जानवरों के नामों को प्रतीक के तौर पर लिए चलती है। ज़मींदार सारस है, उसका बड़ा बेटा नेवला और छोटा मेमना। बलराम यानी व्हाइट टाइगर को इस मेमने में ही अपना शिकार नज़र आता है। फिल्म अमीर और गरीब के बीच के फर्क को कायदे से रेखांकित करती है और बताती है कि बिना छटपटाए, बिना ऊंची छलांग लगाए गरीब अपनी हद से बाहर नहीं निकल सकता। लेकिन साथ ही यह साफ कहती है कि गरीब सिर्फ दो ही तरीके से अमीर बन सकता है-या तो अपराध करके या फिर पॉलिटिक्स करके। और बलराम ये दोनों ही काम करता है। ज़ाहिर है कि यह फिल्म दर्शक को उकसाती है कि सीधे रास्ते पर चलने की बजाय जुर्म और झूठ का रास्ता ही उसे अमीर बना सकता है।
यह सही है कि पूरी फिल्म में कहानी चलती हुई-सी लगती है। लेकिन इसमें कुछ नया, अनोखा या अद्भुत नहीं है। यह एक रुटीन किस्म की कहानी दिखाती है और उसका बेहद रुटीन ट्रीटमैंट भी। स्क्रिप्ट में कई झोल हैं। करोड़पति ज़मींदार का दिल्ली से ट्रेन के सैकिंड क्लास में वापस जाना अखरता है। और जिस तरह से बलराम बंगलुरु में अपना धंधा जमाता है, वह सिर्फ लेखक ही करवा सकता था।
निर्देशक रमीन बहरानी का काम साधारण ही रहा है। हां, कैमरावर्क ज़रूर कमाल का है। और साथ ही कमाल की है सभी कलाकारों की एक्टिंग। महेश मांजरेकर, विजय मौर्य, राजकुमार राव, प्रियंका चोपड़ा और इन सबसे ऊपर रहा है बलराम बने आदर्श गौरव का काम।
यह फिल्म दरअसल बाहर वालों की नज़र से भारत को देखने की वैसी ही उथली कोशिश है जैसी पहले भी कई बार हो चुकी हैं। यही कारण है कि इंटरनेशनल स्तर पर या विदेशी ठप्पा देख कर इसे भले ही सराहा जाए, गहरे घुस कर देखा जाए तो यह कुछ नहीं देती है-सिवाय खोखलेपन के।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)