-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
23 फरवरी, 2020… दिल्ली के जमना पार का एक हिस्सा अचानक से दहशत का केंद्र बन गया था। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में सड़कों पर हफ्तों से जमे बैठे एक वर्ग विशेष के लोगों ने अचानक पुलिस और दूसरे संप्रदाय के लोगों के घरों, दुकानों को जलाना, लूटना शुरू कर दिया। उन्हें चुन-चुन कर मारा जाने लगा। कहा गया कि एक नेता के बयान के बाद वे लोग भड़के। लेकिन इन लोगों की हरकतें बता रही थीं कि इनका यह ‘भड़कना’ अचानक नहीं था बल्कि इसके लंबी तैयारी की जा रही थी। जब आरोपियों की धर-पकड़ शुरू हुई तो धीरे-धीरे सच सामने आने लगा। उन मनहूस दंगों की पहली बरसी पर रिलीज़ हुई डॉक्यूमेंट्री ‘दिल्ली रायट्स-ए टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम’ सच की उन्हीं दबी-छुपी परतों को सामने लाने का काम कर रही है जिन्हें पहले मुख्यधारा मीडिया के एक वर्ग और उसके बाद सोशल मीडिया के सिपाहियों ने या तो सामने नहीं आने दिया या फिर उन परतों में से सिर्फ उन्हीं को खोला जिनसे उनके खुद के हित सध रहे थे।
अपनी नॉन-फीचर फिल्म ‘मधुबनी-द स्टेशन ऑफ कलर्स’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके फिल्मकार कमलेश के. मिश्र इस डॉक्यूमेंट्री की बाबत कहते हैं कि उन दिनों मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा की जा रही सिलैक्टिव रिपोर्टिंग ने उनके अंदर के पत्रकार, फिल्मकार और नागरिक को बुरी तरह से झिंझोड़ा था और इसीलिए उन्होंने तय किया कि वह इस दंगे से जुड़ी उन बातों को सामने लाएंगे जो बहुत कम लोगों को पता हैं और जिनके बारे में बात करने का साहस कोई नहीं कर रहा है। एक डॉक्यूमेंट्री के तौर पर यह फिल्म दर्शकों को न सिर्फ इन तमाम छुपी हुई बातों, हालातों तक ले जाती है बल्कि इन दंगों के पीछे की साज़िशों के बारे में भी बात करती है।
इस डॉक्यूमेंट्री का ट्रेलर इस लिंक पर देखें
कमलेश ने दंगों से पीड़ित हुए लोगों, मारे गए लोगों के परिवारजनों, जलाए गए मकानों-दुकानों के मालिकों के अलावा वरिष्ठ पत्रकारों, वकीलों, पुलिस के अधिकारियों आदि से बात करके भी उन तमाम तथ्यों को सामने लाने की कोशिश की है जो किसी दंगे के होने के कारणों को खड़ा करते हैं। आमतौर पर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में कोई सूत्रधार या दृश्यों के पीछे से नैरेशन होती है लेकिन कमलेश ने इस फिल्म में कोई नैरेशन नहीं दी है। इसे इस फिल्म की कमज़ोरी भी कहा जा सकता है और चाहें तो मजबूती भी कि जहां तथ्यों और हालातों की चश्मदीद बानगी हो, वहां किसी सूत्रधार की भला क्या ज़रूरत?
इस किस्म की फिल्मों में कैमरा एंगल का सधा हुआ होना बहुत ज़रूरी होता है। देव अग्रवाल ने जिस तरह से कैमरा संभाला है, उससे दृश्यों का प्रभाव ज्यादा और उनकी तासीर गहरी ही हुई है। यही काम बापी भट्टाचार्य के बैकग्राउंड म्यूज़िक ने भी किया है। बतौर एडिटर कमलेश के. मिश्रा के काम में भी कसावट रही है। हालांकि दो-एक जगह लगता है कि सीन थोड़े और टाइट किए जा सकते थे। लेकिन बतौर निर्देशक यह फिल्म कमलेश को एक नई ऊंचाई पर ले जाती है। उनके निर्देशक का पैनापन बताता है कि इस डॉक्यूमेंट्री के विषय ने खुद उनको कितने अंदर तक छुआ होगा। हालांकि फिल्म पर यह आरोप भी लग सकता है कि इसमें एक ही समुदाय की व्यथा और पीड़ा दिखाई गई लेकिन शायद इस डॉक्यूमेंट्री का मकसद उस ‘एक्शन’ को दिखाना था जो पहले हुआ, सोच-समझ कर हुआ, साज़िशन हुआ न कि उसके बाद वाले ‘रिएक्शन’ को।
फिल्म के कई दृश्य बहुत डिस्टर्ब करते हैं। मन करता है कि ये जल्दी से सामने से हट जाएं। बहुत बार ऐसा भी होता है कि आंखें नम होती हैं। दिल में एक हूक-सी भी उठती है कि खुद को इस धरती की सबसे बुद्धिमान, विचारवान और सभ्य कहलाने वाली प्रजाति के ये ‘मनुष्य’ क्या सचमुच मानव ही हैं जो यूं किसी के हाथों का खिलौना बन कर ‘दानव’ में बदल जाते हैं। 23 फरवरी, 2021 से ‘वूट’ नामक ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध इस डॉक्यूमेंट्री को हर हाल में देखिए। देखिए, ताकि मन के अंधेरे कोने साफ हों। (यूट्यूब पर यह डाक्यूमेंट्री इस लिंक पर मुफ्त में देखी जा सकती है)
Release Date-23 February, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)