-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
अफगानिस्तान की सरहद पर कहीं संयुक्त राष्ट्र आर्मी के कैंप में बंद भारतीय लड़की फातिमा पर आरोप है कि वह अपनी मर्ज़ी से आतंकी संगठन आईएसआईएस ज्वाइन करने के लिए केरल से निकली थी। वह कहती है कि हां, यह सच है, लेकिन पहले यह तो जान लीजिए कि ऐसा हुआ कैसे? कैसे एक हिन्दू लड़की शालिनी उन्नीकृष्णन का ब्रेनवॉश कर के न सिर्फ उसे धर्म-परिवर्तन पर राज़ी किया गया बल्कि खलीफा के लिए लड़ने की खातिर सीरिया तक चलने के लिए मना लिया गया। इसके बाद वह जो कहानी सुनाती है, उसे देख कर इसलिए ज़्यादा सिहरन होती है क्योंकि फिल्म अपनी शुरूआत में ही इसे ‘सच्ची घटनाओं से प्रेरित’ बताती है और अंत में उन घटनाओं से जुड़े लोगों व उनके परिवार वालों के इंटरव्यू दिखा कर अपने कहे को पुख्ता आधार देती है।
यह फिल्म एक साधारण-सी कहानी दिखाती है। लेकिन बड़े ही सिलसिलेवार ढंग से यह बताती है कि कैसे नर्सिंग की पढ़ाई के लिए एक कमरे में साथ रह रहीं चार लड़कियों में से एक लड़की बाकी की तीन को बरगलाती-फुसलाती। कैसे वह उन्हें, उनके रहन-सहन, उनकी आस्थाओं, उनकी संस्कृतियों को गलत बताते हुए सिर्फ अपने रास्ते को सही बताते हुए उन्हें भी उस पर चलने को पहले प्रेरित करती है। चूंकि इस किस्म की घटनाएं न सिर्फ केरल बल्कि देश और दुनिया में कई जगहों पर हो चुकी हैं इसलिए इनकी विश्वसनीयता पर भी उंगली नहीं उठाई जा सकती। फिल्म यह पोल भी खोलती है कि कैसे कुछ लोग मज़हब के नाम पर पहले अपने धर्म के नौजवानों को बहकाते हैं और फिर उनके ज़रिए दूसरे धर्म के लोगों को फुसलाते हैं व मौका मिलते ही उन पर दबाव डाल कर उन्हें एक ऐसे जाल में फंसा लेते हैं जहां से निकल पाना संभव नहीं होता।
दुनिया भर के आतंकी ठिकानों में औरतों को यौन-दासी बना कर रखे जाने की घटनाएं सामने आती रही हैं। इन औरतों में से अधिकांश बहला-फुसला कर ही लाई गई होती हैं। यह फिल्म उन्हें बहलाने-फुसलाने की प्रक्रिया दिखाने के बरअक्स यह चेतावनी भी देती है कि अपने बच्चों को खुद से जोड़े रखना कितना ज़रूरी है ताकि वे छिटक कर दूसरों के दिखाए उन रोशन ख्वाबों की राहों पर न चलने लगें जिनकी ताबीरें (व्याख्याएं) असल में काली होती हैं।
सूर्यपाल सिंह, सुदीप्तो सेन और विपुल अमृतलाल शाह की लिखावट महान भले न हो लेकिन इसकी बड़ी खासियत यह है कि यह किसी किस्म का मैलोड्रामा रचे बिना अपनी बात को एक ही पटरी पर रखते हुए चलती है और बिना किसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती के दर्शक को अपने साथ लिए चलती है। केरल की कहानी होने के कारण फिल्म में काफी सारी मलयालम और कुछ अंग्रेज़ी भी है लेकिन दृश्य-संरचना, भावों और सब-टाइटिल्स के चलते कोई दिक्कत नहीं होती। विपुल और सुदीप्तो का निर्देशन फिल्म को न सिर्फ थामे रहता है बल्कि एक पल के लिए भी दर्शक को थिएटर छोड़ कर नहीं जाने देता। फिल्म खत्म होने के बाद भी उठिएगा नहीं। पर्दे पर कुछ सच्ची बातें लिखीं आएंगी, उन्हें पढ़िएगा। कुछ सच्चे इंटरव्यू आएंगे, उन्हें देखिएगा। एक शानदार गाना आएगा, उसके बोल सुनिएगा।
अदा शर्मा ने अपने कैरियर का सर्वश्रेष्ठ दिया है इस फिल्म में। कहीं-कहीं तो वह ‘रोजा’ की मधु सरीखी प्यारी भी लगीं। बाकी के कलाकारों में योगिता बिहानी के अलावा कोई भी ऐसा नहीं है जिसे हिन्दी वाले खट से पहचान लें। लेकिन काम सभी का प्रभावी है। लोकेशन शानदार हैं। कैमरा, एडिटिंग जैसे तकनीकी पक्षों में साधारण रही यह फिल्म अपनी उस बात के लिए देखी जानी चाहिए जिसे कहने की हिम्मत कर पाना भी दुस्साहस है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-05 May, 2023 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
दीपक भाई वास्तव में यह फिल्म हम सभी को देखनी चाहिए आपकी समीक्षा बेहद तटस्थ भाव से की गई समालोचना है। समीक्षक समग्र दृष्टि से अवलोकन करता हुआ मात्र संजय होता है। वह धृतराष्ट्र को वृतांत सुनता था आप हमें सुना रहे है। संजय की भूमिका में सुदीप्तो दा भी है वो अलग बात है हम धृतराष्ट्र बने हुए है।
Deepak bhai we all should watch this movie really your review is very neutral. The reviewer is just Sanjay observing from a holistic point of view. He used to listen to the story of Dhritarashtra, you are telling us. Sudipto da is also in the role of Sanjay, that is a different matter, we have become Dhritarashtra.
धन्यवाद
Trashily made. Insensitive. Playing on brainless stereotypes and religious tension to get ratings and revenue.
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