-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
30 जनवरी, 1971… श्रीनगर से इंडियन एयरलाइंस का हवाई जहाज जम्मू के लिए उड़ा मगर दो कश्मीरी युवकों ने उसे हाइजैक कर लिया और पाकिस्तान में लाहौर ले गए। आज़ाद कश्मीर की मांग कर रहे एक संगठन से जुड़े इन युवकों ने भारतीय जेलों में बंद अपने साथियों को छोड़ने की मांग की। पाकिस्तान में इन युवकों का स्वागत हुआ। पाकिस्तान सरकार के कहने पर इन्होंने जहाज के सभी यात्रियों को छोड़ दिया और जहाज को जला दिया। भारत ने पाकिस्तान की इस कार्रवाई का विरोध करते हुए उसके जहाजों को भारत के ऊपर से उड़ने की इजाज़त देने से इंकार करते हुए एयर-स्पेस ब्लॉक कर दिया। ज़ाहिर है इससे पाकिस्तान का अपने दूसरे हिस्से यानी पूर्वी पाकिस्तान से हवाई संपर्क कट गया और उसी साल के अंत में वह हिस्सा भी पाकिस्तान से कट कर बांग्लादेश बन गया जिसमें भारत की भी बड़ी भूमिका रही।
इतिहास के पन्नों में दर्ज यह कहानी बहुत कम लोगों को पता है। उससे भी कम लोगों को इस कहानी के पीछे का सच पता है। वह सच, जो भारत की चतुराई भरी हरकतों की तरफ इशारा करता है। वह सच, जो बताता है कि उस दिन श्रीनगर से उड़ा ‘गंगा’ नाम का वह हवाई जहाज असल में एक खटारा जहाज था। महीनों पहले रिटायर घोषित किए जा चुके उस जहाज को उस दिन रंग-पोत कर वहां भेजा गया था। तो क्या भारत को पता था कि उस दिन वह जहाज हाइजैक होने वाला है? तो क्या भारत ने जान-बूझ कर उसे हाइजैक होने दिया ताकि वह किसी बहाने से पाकिस्तान का एयर-स्पेस ब्लॉक कर के उसके जहाजों को पूर्वी पाकिस्तान तक न पहुंचने दे? क्या उस जहाज में सचमुच आम पैसेंजर थे? बाद में पाकिस्तान द्वारा भारत पर इस तरह के आरोप भी लगाए गए लेकिन न तो कभी भारत ने यह बात कबूली और न ही पाकिस्तान ने यह माना कि उसने उन आतंकियों की मदद की थी। यह फिल्म भारत के उसी टॉप-सीक्रेट मिशन पर आधारित है।
फिल्म बताती है कि 1948 और 1965 में पाकिस्तान हमसे दो जंग हारने के बाद 1971 में बड़ी तैयारी कर रहा था और हम अनजान थे। इतने अनजान कि पाकिस्तान चीन की मदद से हम पर बस हमला करने ही वाला था और हमारे पास तैयारी के लिए बिल्कुल भी वक्त नहीं था। ऐसे में इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई.बी. ने एक प्लान बनाया और उसे कश्मीरी आतंकी गुट के प्लेन-हाइजैक प्लान के साथ जोड़ दिया। यह फिल्म आई.बी. के उसी प्लान को दिखाती है, परत-दर-परत।
कहानी अच्छी है। वैसे भी सच की खोह में से निकलने वाली कहानियां अक्सर अच्छी ही होती हैं और इसीलिए उन पर फिल्म बनाने की कोशिशें की जाती हैं। लेकिन यहां पर छह-सात लोगों ने मिल कर जो लिखा है वह उतना विश्वसनीय नहीं हो पाया है जितना इस किस्म की स्पाइ-थ्रिलर फिल्मों में होना चाहिए। चूंकि मूल कहानी काफी छोटी है इसलिए उसे फैलाने के लिए शुरू में नायक के परिचय के तौर पर एक अलग कहानी रची गई है जिसमें वह आई.बी. एजेंट पूर्वी पाकिस्तान के एक मिलिट्री कैंप में से अपने साथी को बचा कर निकल रहा है। इसे देख कर ही पता चल जाता है कि लिखने वालों के पास कल्पनाशीलता का अभाव है। इसकी झलक बाद की पूरी फिल्म में भी लगातार दिखाई देती रहती है जब कहानी अपने सहज प्रवाह और तर्कों की बजाय संयोगों के दम पर आगे बढ़ती है। कई बार ऐसे मोड़ आते हैं जब तार्किक मन बहस करता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो…? स्पष्ट है कि लेखकों ने जो चाहा, वही आपको दिखाया। हां, संवाद कुछ एक जगह उम्दा हैं।
फिल्म के हीरो विद्युत जामवाल इसके निर्माता भी हैं। लेकिन अपने किरदार को उन्होंने इतना हल्का कैसे रहने दिया? उन्हें बार-बार पिटते देखना उनके प्रशंसकों को पीड़ा दे सकता है। अनुपम खेर हमेशा की तरह सधे रहे। अश्वत्थ भट्ट ने अपनी भंगिमाओं से असर छोड़ा। मीर सरवर जंचे। बाकी के कलाकार भी सही रहे। 1971 की कहानी में भारतीय एजेंसी रॉ और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का ज़िक्र तक न होना भी खटकता है।
निर्देशक संकल्प रेड्डी 2017 में आई ‘द गाज़ी अटैक’ (रिव्यू-अनदेखी दुनिया दिखाती ‘द ग़ाज़ी अटैक’) से प्रभाव छोड़ चुके हैं। बतौर निर्देशक वह इस बार भी सफल नज़र आते हैं। शुरुआत से ही वह फिल्म के मूड के मुताबिक ज़रूरी तनाव रच पाने में कामयाब रहे हैं। कसी हुई एडिटिंग और बैकग्राउंड म्यूज़िक ने उनके रचे तनाव को चरम पर पहुंचाया है। लोकेशन और कैमरे के अलावा 1971 के माहौल को रचने में प्रोडक्शन वालों की मेहनत भी दिखती है। कहानी और स्क्रिप्ट के मोर्चे पर हल्की रहने के बावजूद सधे हुए निर्देशन के चलते ही यह फिल्म देखे जाने लायक बन सकी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-12 May, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
फ़िल्म नायक इसी तरह कि फिल्मे ही करना पसंद करता है… बहुत सी इसी तरह कि इनकी फिल्मे हैँ जैसे हमारे सन्नी भाई साहब ने, एकशय भाई साहब और अब ये भी इसी कतार में हैँ…
फ़िल्म कोरी काल्पनिक घटना पर आधारित हैँ क्यूंकि दोनों ही देशों ने कभी भी जस घटना को नहीं स्वीकारा… और जब उस समय कि सत्ताधारी PM तक का इस मुहीम में नाम ही नहीं है यों क्या निर्देशक और लेखक दोनों को उनका नाम याद नहीं रहा या जानबूझकर नहीं लिया और दिखाया गया…
रिव्यु में कोई कमी नहीं बल्कि पटकथा एक कोरी काल्पनिक और राजनैकतिक से प्रभावित है…
Nothing Else जस्ट ठूसईंग this type of fake stories