-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारतीय ओ.टी.टी. धीरे-धीरे फुल फॉर्म में आता जा रहा है। लंबे समय से इस बात की ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि जिन कहानियों में इतनी चमक-दमक नहीं होती कि वे सिनेमाघरों में भीड़ जुटा सकें, उनके लिए कोई तो मंच हो जहां वे बिक सकें, दिख सकें। ओ.टी.टी. इस कमी को दूर करने में सार्थक कोशिशें कर रहा है। ताज़ा मिसाल नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म ‘कटहल’ है जो बुंदेलखंड क्षेत्र की एक ऐसी कहानी को पूरी रंगत और रंगीनियत के साथ दिखा रही है जो असल में हमारे यहां के किसी भी राज्य, जिले या शहर की कहानी हो सकती है।
उत्तर प्रदेश के महोबा (फिल्म में मोबा है) के विधायक के घर में लगे पेड़ से 15-15 किलो के दो कटहल चोरी हो गए हैं और पूरे जिले की पुलिस सारे काम छोड़ कर बस इन कटहल को ढूंढने और चोर को पकड़ने में लग गई है।
स्टोरी आइडिया अच्छा है। सरकारी तंत्र के काम करने के तौर-तरीकों और ऊंची कुर्सियों पर बैठे ताकतवर लोगों की सोच को उजागर करती है यह फिल्म। ऐसी फिल्में या तो हार्ड-हिटिंग अच्छी लगती हैं ताकि कस कर प्रहार करें या फिर व्यंग्य-हास्य से भरपूर ताकि दर्शक इन्हें देख कर हंसते-हंसते विचार करे। इस फिल्म में लेखक जोड़ी अशोक मिश्रा और यशोवर्धन मिश्रा ने यह दूसरा वाला रास्ता अपनाया है। यही कारण है कि फिल्म की शुरुआत से ही आपके चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कान आ जाती है जो कमोबेश पूरी फिल्म के दौरान बनी रहती है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह मुस्कान हंसी-ठहाकों में नहीं बदल पाती और न ही यह फिल्म आपके दिल में गहरे तक उतर पाती है। इसके भी कारण हैं।
दरअसल फिल्म की कहानी है बित्ते भर की, सो इसे फैलाने के लिए लेखकों ने इसमें बहुत कुछ और भी डाला है। लेकिन इस डालने के फेर में इन्होंने कुछ छोड़ा ही नहीं। पुलिस महकमे के दबावों, महिला पुलिसकर्मियों की नौकरी में दशा, अपने काम और घर को बैलैंस करने की उनकी कोशिशों, जाति व्यवस्था, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, फटी जींस, लड़कियों के प्रति सोच, पुलिस का भ्रष्टाचार… यानी यूं कहिए कि इस ‘कटहल’ को पकाने के लिए जो भी ज़रूरी, गैरज़रूरी मसाले लेखकों को मिले, वे सब इसमें डाल दिए गए-बिना यह सोचे कि उन मसालों में से यहां किस की कितनी ज़रूरत है। है भी या नहीं। और अति तो साहब, हर चीज़ की बुरी होती है। लेखकों ने स्क्रिप्ट लिखते समय पुलिस विभाग के बारे में थोड़ा और होमवर्क कर लिया होता तो उन्हें पता होता कि एक कांस्टेबल कितने समय में इंस्पैक्टर बनता है और उसे सीधे सब-इंस्पैक्टर नहीं बनाया जा सकता।
इस कमी के बावजूद फिल्म को खड़ा करने में लेखकों की मेहनत झलकती है। निर्देशक यशोवर्धन मिश्रा ने भी पटकथा को जामा पहनाने में कामयाबी पाई है। रंग-बिरंगे किरदार, उनकी सोच, भाषा, पहनावा, रंग-रूप, हरकतें आदि मिल कर फिल्म को देखने लायक बनाते हैं। कहीं-कहीं संवाद बहुत बेहतर हैं, मार करते हैं। हिन्दी फिल्मों में मीडिया को जिस तरह से जोकरनुमा दिखाया जाता है उसके उलट यहां एक छोटे शहर के लोकल मीडिया नेटवर्क को भी पूरे विश्वसनीय और असरदार तरीके से दिखाया गया है। राजपाल यादव ने पत्रकार अनुज के रोल में बहुत ही प्रभावशाली काम किया है। बुंदेलखंडी भाषा का पूरे लहज़े के साथ किया गया भरपूर इस्तेमाल फिल्म की रंगत में इजाफा करता है। थोड़ा यहां-वहां न भटकती, थोड़ी और कसावट होती, पुलिस वाले किरदारों को रचने में कन्फ्यूज़न न होती और अंत की भगदड़ ज़रा कम होती तो यह फिल्म उम्दा हो सकती थी। गीत-संगीत अच्छा है। लोकेशन वास्तविक हैं और माहौल प्रभावी।
सान्या मल्होत्रा ने दमदार काम किया है। विजय राज़, ब्रिजेंद्र काला, गोविंद पांडेय, नेहा सराफ, गुरपाल सिंह, रघुवीर यादव भी असरदार रहे। नायिका से प्यार करने वाले अनंत विजय जोशी बहुत ही हल्के रहे, किरदार से भी, काम से भी। ऐसी फिल्मों से एक शिकायत यह भी हो सकती है कि जिस इलाके में शूटिंग के लिए जा रहे हैं, वहां के स्थानीय कलाकारों से तो भरपूर काम लीजिए। मध्यप्रदेश में रहने वाले अजय पाल सिंह (नंदू – मिलिए हॉस्पिटल के सामने फू-फू करते नंदू से) जैसे काबिल कलाकार को एक सीन में लेकर क्या दिखाना चाहते हैं फिल्म वाले?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-19 May, 2023 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Very nice. Seems a light comic family drama. Must watch
Thanks
फ़िल्म समीक्षा इस तरह से कि गयी है कि पूरी स्टोरी माइंड में घर कर जाती है। जैसा कि सर ने भी बताया कि एक छोटे से विषय पर अगर बहुत लम्बी फ़िल्म बना दी जाय और कुछ ज़्यादा ही सरकारी तंत्र का गलत इस्तेमाल दिखाया जाय तो वह दर्शकों को बाँधने में पूरी तरह से सफल नहीं हो पता है..जोकि इस OTT पर प्रसारित फ़िल्म में दिखाया गया है….
रिव्यु जानदार है और साथ में “फूं -फूं ” वाले एक लोकल कलाकर (भोपाल से) साहब का परिचय कराने के लिए फ़िल्म समीक्षाक साहब का धन्यवाद
धन्यवाद…