-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
शहर के ‘कसाई मौहल्ले’ से होकर एक युवा हिन्दू नेता की रैली गुज़र रही है। नेता भड़काऊ भाषण दे रहा है। वहां के निवासी डरे-सहमे हुए हैं। अचानक पत्थर चलने लगते हैं। नेता चोटिल होकर चला जाता है। उसके चेले-चपाटे वहां दंगा कर देते हैं। युवा नेता की मंगेतर उसकी हरकतों के विरोध में घर छोड़ कर चली जाती है। एक अनजान मुस्लिम युवक उसकी मदद करता है। नेता इसका वीडियो वायरल करवा देता है कि यह ‘लव जिहाद’ है। एक मुस्लिम शख्स एक हिन्दू लड़की को लेकर भाग गया। वह मुस्लिम कहता है-यह तो अफवाह है। जवाब मिलता है-लेकिन फिक्र किसे है? न फैलाने वाले को, न यकीन करने वाले को। इन दोनों के पीछे पुलिस है, नेता के चमचे हैं, और भी कई लोग हैं। लेकिन इनकी मदद करने वाला कोई नहीं, क्योंकि हर कोई उस खबर को सच मान बैठा है जो असल में अफवाह है।
आप चाहें तो सवाल कर सकते हैं कि भारत में ऐसा कौन-सा ‘कसाई मौहल्ला’ है जहां से एक युवा हिन्दू नेता भड़काऊ भाषण देता हुआ गुज़र जाए और वहां के लोग ‘डरे-सहमे’ हों? इसका जवाब बस यही है कि फिल्म अपनी शुरूआत में ही यह डिस्क्लेमर दे देती है कि इसमें दिखाई गई घटनाएं, चरित्र आदि सब काल्पनिक हैं। यहां तक कि इसकी शूटिंग भले ही राजस्थान में की गई हो लेकिन पर्दे पर यह कोई वास्तविक राज्य दिखाने की बजाय किसी ऐसे राज्य में कहानी को दिखाती है जहां की पुलिस के कंधे और गाड़ियों की नंबर प्लेट पर ‘डब्ल्यू.पी.’ लिखा है। उस रैली पर पत्थर किसने चलाए, फिल्म इस पर बात ही नहीं करती… जान-बूझ कर।
कहानी बुरी नहीं है। लेकिन यह नई भी नहीं है। जान बचा कर भागते लड़का-लड़की और उनके पीछे पड़े दबंगों की कहानियां ढेरों बार देखी-दिखाई जा चुकी हैं। यहां नया एंगल यह है कि दबंग उनके पीछे पड़ने के साथ-साथ उनके बारे में अफवाहें भी उड़ा रहे हैं जिससे भागने वाले लगातार खतरे में पड़ रहे हैं। सोशल मीडिया के आने के बाद किसी सही-गलत वीडियो या फोटो के वायरल होने से समाज के किसी एक वर्ग या पूरे समाज को पैदा हुए खतरों के कुछ-एक वाकये हो चुके हैं। यही कारण है कि कहीं माहौल गड़बड़ाता है तो सरकार पहले इंटरनेट बंद करती है, हालांकि ‘कुछ लोगों’ को उस पर भी ऐतराज़ होता है। यह फिल्म ऐसे ही खतरों की तरफ दर्शकों का ध्यान ले जाती है। फिल्म दिखाती है कि बहुतेरे लोग किसी खबर के सच-झूठ को समझे बिना उस पर यकीन करने और उसे फैलाने में लग जाते हैं जिससे होने वाले नुकसान के बारे में उन्हें अंदाज़ा भी नहीं होता। फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए बाकायदा पैसे खर्च कर के ऐसी अफवाहों को फैलाने में सहयोग करते हैं। फिल्म उन कथित ‘आई.टी. सेल’ वालों की हरकतों को भी दिखाती है जो पैसे कमाने के लिए कई बार अफवाहों को इस हद तक फैला देते हैं कि वहां से पीछे हट पाना उनके लिए भी मुमकिन नहीं होता। फिल्म यह भी दिखाती है कि इन अफवाहों के ज़हर से समाज का कोई भी वर्ग नहीं बच पाता। चाहे वह गरीब, कम पढ़ा-लिखा वर्ग हो या फिर समाज का वह अतिसभ्रांत वर्ग जो लिटरेचर फेस्टिवलों में उठता-बैठता है। बल्कि ये वाले लोग तो कहीं ज़्यादा डरे हुए, कहीं ज़्यादा कायर होते हैं।
लेकिन यह फिल्म सिर्फ जागरूकता फैलाने और लोगों को सतर्क करने के मकसद से ही नहीं बनाई गई है। इसका मकसद कुछ और भी हैं। फिल्म दिखाती है कि ‘राष्ट्रीय विकास पार्टी’ नाम की राजनीतिक पार्टी के ‘हिन्दू’ नेता और कार्यकर्ता असल में सारे गुंडे, दबंग, बाहुबली हैं जो मुसलमानों को, औरतों को और पुलिस को भी कुछ नहीं समझते। न ही ये लोग अपने साथ काम कर रहे वफादारों की कद्र करते हैं। इनकी सोच पितृसत्तात्मक है, सामंतवादी है और समाज में आतंक फैलाना इनकी फितरत है।
सुधीर मिश्रा, निसर्ग मेहता और शिवा शंकर वाजपेयी की लेखनियां इस फिल्म की कहानी व पटकथा को न तो पूरी तरह से विश्वसनीय बना पाई हैं और न ही प्रभावशाली। कहानी अपने खुद के प्रवाह से चलती नहीं दिखती। साफ लगता है कि पहले इस कहानी से निकलने वाले निष्कर्ष को तय किया गया और उसके बाद उस नतीजे के चारों तरफ पात्रों व घटनाओं का आवरण बुना गया। यही कारण है कि यह कई जगह बनावटी और नकली लगती है। कई किरदार बेवजह हैं जिनका मूल कहानी से कोई नाता ही नहीं है।
सुमित व्यास ज़ोरदार काम करते हैं। भूमि पेढनेकर और सुमित कौल भी असरदार रहे। लेकिन भूमि के किरदार को ज़मीन ही नहीं मिली। क्या सोच कर और कहां के लिए वह घर से भागी थी? नवाजुद्दीन सिद्दिकी का किरदार भी लड़खड़ाया हुआ लगा। सबसे असरदार काम किया शारिब हाशमी ने। खूब जमे, जंचे वह। सुधीर मिश्रा अपने निर्देशन से असर पैदा करते हैं। एक ही रात में घटने वाली कहानियां कहना उन्हें पसंद है। यह फिल्म भी लगभग एक ही रात की कहानी दिखाती है। फिल्म की पटकथा को सुधीर और अधिक संतुलित कर पाते तो वह इस फिल्म को बहुत ऊंचा ले जा सकते थे। गीतकार सागर को शब्दों से असर छोड़ना आता है। ‘आज ये बसंत थोड़ा बावला हुआ मां, सरसों के खेत में अफीम उग आया…’ के बोल और संगीत प्रभावी है।
अक्सर इस किस्म की फिल्मों को बनाने वालों का दावा होता है कि वे नफरतों को कम करने की कोशिशें कर रहे हैं। लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि इनकी ये असंतुलित कोशिशें असल में नफरतें बढ़ाने का काम करती हैं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-05 May, 2023 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बेहद उम्दा लिखा है! अफवाहों की मंडी तरक्की पार है! बेबुनियाद खबरें बनाई जा रही है, बेची जा रही है, खरीदी जा रही हैं और हम सभी बिना कुछ जाने समझे झूठ की इस हद तक फैलाते जाते है जब तक कि वह सच न लगने लगे!!! इंटरनेट, मीडिया, आई टी सैल समान रूप से ये ट्रेंड चला रहे हैं! पर ये कितना घातक है ये आज के हालात बता रहे हैं! इस रिव्यू मे हर पहलू को सामने रखा है! और एस तरह की फिल्में सिर्फ जहर भरने का काम करती है!
धन्यवाद
आपका रिव्यु बहुत ही फैक्ट्स के साथ लिखा गया है…
लेकिन न जाने बॉलीवुड को क्या होगया है कि इनको इस तरह के सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनानी चाहिए या नहीं….
रात को न्यूज़ चैनल पर टाइ -कोट पहनकर नफरत फैलाने वाले तो पहले से ही मौजूद हैँ… फिर ये भी..
ज़्यादा लिखने के लिए बस यही है कि “ज़वाब ज़ाहिले -ख़ामोशी “..