-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
गुजरात के एक गांव में रह रहे मोहन और हार्दिक को किसी भी तरह से अमेरिका जाना है ताकि वहां काम करके वे अपनी गरीबी दूर कर सकें। इसके लिए दोनों अहमदाबाद आते हैं और अमेरिका जाने के जुगाड़ में लग जाते हैं। इस चक्कर में मोहन एक झूठ बोलता है और फिर उससे बचने के लिए दूसरा, तीसरा, चौथा…। क्या ये लोग अमेरिका पहुंच पाए? पहुंचे तो कैसे? नहीं पहुंचे तो क्यों नहीं?
विदेश जाने के युवा पीढ़ी के सपनों और उन सपनों को पूरा करने में आ रही दुश्वारियों पर पर फोकस करती कई फिल्में भारत में अलग-अलग भाषाओं में आई हैं। 2016 में रिलीज़ हुई तमिल फिल्म ‘आंदवन कत्तलई’ में भी कुछ ऐसी ही कहानी थी। उस फिल्म को गुजराती में बनाने के अधिकार लेकर लेखक-निर्देशक मनीष सैनी ने ‘शुभ यात्रा’ की कहानी रची। दोनों फिल्मों की कहानी का सिर्फ आधार एक-सा है। मनीष ने जय भट्ट के साथ मिल कर उस आधार पर अपनी खुद की इमारत खड़ी की है और पूरी बुलंदी के साथ की है।
फिल्म अपने पहले ही सीन से अपना सुर बता देती है और अंत तक थोड़ी बहुत कमी-बेशी के साथ उस सुर को पकड़े रखती है। पहले कास्टिंग में और फिर एक गाने में एनिमेशन के खूबसूरत इस्तेमाल के साथ यह अपने हल्के-फुल्केपन को बताती चलती है। नायक मोहन और उसके साथी हार्दिक की हरकतों के चलते यह लगातार आपके चेहरे पर मुस्कान बनाए रखती है। यह कोई कॉमेडी फिल्म नहीं है। इसे देखते हुए आप ठहाका मार कर नहीं हंसते लेकिन इसकी सिचुएशंस और उन सिचुएशंस में जा फंसे किरदारों की बातों व हरकतों में से जो हास्य निकलता है वह आपको गुदगुदाता है। बड़ी बात यह भी है कि यह फिल्म अपने मूल मुद्दे के साथ-साथ सरकार और समाज की खबर भी लेती चलती है। इधर फिल्मों में दिखाए जाने वाले न्यूज़-चैनलों की हास्यास्पद तस्वीरों से अलग यह मीडिया को उसके सही व सार्थक रूप में दिखाती है। बतौर लेखक मनीष व जय इसके लिए बधाई के पात्र हैं। अपने लिखे संवादों से ये दोनों पूरी फिल्म में रोचकता बनाए रखते हैं। इंटरवल के बाद कुछ पल के लिए फिल्म हल्की सुस्त होती है लेकिन बहुत जल्द यह इमोशंस को पकड़ कर वापस अपनी रफ्तार बढ़ा देती है।
सिनेमा की भाषा और शिल्प पर मनीष सैनी की अच्छी पकड़ है, यह बात वह पहले भी साबित कर चुके हैं। उनकी फिल्म ‘ढ’ को गुजराती भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। (रिव्यू-हंसाती है, सिखाती है ‘ढ’) इस फिल्म में भी वह बिना पटरी छोड़े अपनी बात को पूरे अधिकार के साथ रखते हैं। सीन बनाने उन्हें आते हैं और अपने कलाकारों से उम्दा काम निकलवाना भी। मोहन बने मल्हार ठाकर और हार्दिक बने हेमिन त्रिवेदी का काम खूब सरस रहा है। पत्रकार बनीं मोनल गज्जर प्रभावित करती हैं। उनकी आंखों और चेहरे में ही नहीं, काम में भी चमक है। दर्शन जरीवाला, मोरली पटेल, हितु कनोडिया व अन्य सभी कलाकार भी खूब जमे हैं। भार्गव पुरोहित के लिखे गीत कहानी को सहारा देते हैं और केदार-भार्गव का संगीत उन्हें निखारता है। लोकेशन व कैमरा असरदार हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक फिल्म के मूड को बताता चलता है।
इधर गुजराती सिनेमा में ज़्यादातर लाउड किस्म की फिल्में ही बन रही हैं। लेकिन यह फिल्म सार्थक, हल्की-फुल्की और सलीके की बात करती है। साथ ही यह एक शुभ संदेश भी देती है कि झूठ से समस्याएं बढ़ती हैं और सच से सुलझती हैं, नई पीढ़ी सीखना चाहे तो सीख ले।
फिलहाल यह गुजराती फिल्म महाराष्ट्र और गुजरात में थिएटरों पर आई है। कुछ महीने में यह किसी बड़े ओ.टी.टी. पर दिखेगी। फिल्म का ट्रेलर देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-28 April, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)