-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
ज़ी-5 ने तो जैसे ठान ही लिया है कि उम्दा विषयों पर फिल्में देनी हैं और लगातार देनी हैं। प्रख्यात कुक व कुक-बुक राईटर तरला दलाल की इस बायोपिक से ज़ी-5 एक कदम और आगे बढ़ा है।
1936 में पुणे में जन्मीं और ब्याह कर मुंबई आ गईं तरला दलाल हमेशा से कुछ करना चाहती थीं। लेकिन क्या ‘कुछ’, यह उन्हें पता चला शादी के बरसों बाद, जब उनके बनाए खाने की तारीफें हर तरफ होने लगीं और लड़कियां उनसे कुकिंग सिखाने की गुज़ारिश करने लगीं। कुकिंग सिखाते-सिखाते उन्होंने रेसिपी की किताबें लिखीं, टी.वी. पर कुकरी शो किए और 2007 में पद्म श्री पुरस्कार भी पाया। 2013 में उनका निधन हो गया लेकिन उनकी लिखीं बीसियों किताबों के देश-विदेश मे अनुवाद होते रहे, करोड़ों प्रतियां बिकती रहीं और आज भी दुनिया के करोड़ों लोग उनकी बताई रेसिपी से अपना जायका सुधारते हैं।
शाकाहारी व्यंजनों की दुनिया में क्रांति लाने वाली तरला दलाल की इस बायोपिक की कहानी भी उसी ढर्रे पर चलती है जैसे आमतौर पर बायोपिक बनाई जाती है। इस फिल्म के लेखक पीयूष गुप्ता ‘दंगल’ रिव्यू-‘दंगल’ खुद के खुद से संघर्ष की कहानी और ‘छिछोरे’ रिव्यू-जूझना सिखाते हैं ये ‘छिछोरे’ जैसी फिल्में लिख चुके हैं जिनमें सपने देखने और उन्हें सच करने की बातें थीं। इस फिल्म में भी पीयूष ने गौतम वेद के साथ मिल कर कहानी में उसी मैसेज का छौंक लगाया है कि सपने देखने और उन्हें सच करने के रास्ते में आने वाली मुश्किलों से घबराए बिना जो इंसान कोशिशें करता रहता है, अंत में जीत उसी की होती है।
बतौर निर्देशक पीयूष गुप्ता की यह पहली फिल्म है। फिल्म के क्राफ्ट पर उनकी पकड़ दिखाई देती है। लेकिन इस कहानी में वह बहुत ज़्यादा उछाल नहीं ला पाए हैं। फिल्म धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। कुछ एक सीन सुस्त भी लगते हैं। तेज़ रफ्तार सिनेमा देखने के शौकीन थोड़े बोर भी हो सकते हैं। लेकिन धीमी आंच पर पकते हुए जब यह अपने अंत के करीब पहुंचती है तो इसका स्वाद बढ़ चुका होता है। यही इसकी सफलता है।
हुमा कुरैशी की मेहनत उनकी अदाकारी के अलावा उनकी बॉडी लैंग्युएज में भी झलकती है। शारिब हाशमी ने नलिन के किरदार में इस कदर डूब कर काम किया है कि मन वाह-वाह कर उठता है। भारती अचरेकर का बीच में अचानक गायब हो जाना अखरता है। अमरजीत सिंह, राजीव पांडेय, शीबा अज़हर, गरिमा अग्रवाल समेत सभी कलाकार जंचे हैं। शुरु के एक सीन में प्रोफेसर गौरी बन कर आईं प्रख्यात फिल्म क्रिटिक भावना सोमाया अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। गीत-संगीत ठीक-ठाक है।
यह फिल्म सिर्फ एक तरला दलाल की ही कहानी नहीं कहती बल्कि यह दुनिया की उन तमाम औरतों की कहानी भी कहती है जिन्हें या तो सपने देखने ही नहीं दिए गए या फिर उनके सपनों को सपोर्ट करने वाला कोई नहीं मिला। यहां तरला के पति नलिन की अपनी एक अलग जर्नी दिखाई देती है। नलिन का पत्नी को सपोर्ट करते-करते अपनी ईगो का शिकार हो कर भटकना और फिर संभल जाना बताता है कि किसी कामयाब औरत के पीछे भी किसी पुरुष का हाथ हो सकता है। फिल्म के कई संवाद उम्दा हैं। हां, बहुत जगह तार्किक गड़बड़ियां हुई हैं, टाइम लाइन भी डगमगाई है लेकिन उससे मूल कहानी पर असर नहीं पड़ता और यह स्वादिष्ट लगती है। अंत के करीब एक सीन में दर्शक की आंखों में उतर आया पानी इसे नमकीन बनाता है-स्वादानुसार।
इस किस्म की फिल्में उम्मीदें जगाती हैं, सच बताती हैं और सोच को बदलने का काम भी करती हैं। औरतों से ज़्यादा यह फिल्म ‘भला खाना बनाना भी कोई काम है’ की सोच रखने वाले मर्दों को देखनी चाहिए, उनकी ज़िंदगी जायकेदार हो सकती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-07 July, 2023 on ZEE5
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
वाकई फ़िल्म का रिव्यु एक दमदार है। इसका समापन एक कटाक्षदार शिक्षा के साथ होता है….
फ़िल्म के कलाकारों की मेहनत और ये बायोपिक कहानी, जोकि हर एक महिला कि हो सकती है… फ़िल्म में जान डाल देती है…
मेरी रेटिंग इस फ़िल्म के लिए **** है..