-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘विकास बक्से में भर कर डालटनगंज पहुंचा और बक्से को मुखिया जी के घर में रख लिया गया।’’
1986 का वक्त। लगभग वही समय जब प्रधानमंत्री ने कहा था कि रुपए में से 15 पैसे आम आदमी तक पहुंचते हैं। यह फिल्म बाकी के 85 पैसे पर कब्जा करने की ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों की जोड़तोड़ को दिखाती है। तब के बिहार में डालटनगंज (आज के झारखंड का मैदिनी नगर) एक ऐसी जगह, जिसकी ज़मीन में खनिजों की भरमार है। ज़मींदारी से ठेकेदारी में उतरे लोगों ने बाहुबल से इस काम पर कब्जा जमाया। इस काम में उन्हें भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का साथ मिला तो बेरोज़गार युवाओं को इन्होंने अपना हथियार बनाया। इनके खिलाफ जो सिर उठे, उन्हें कुचल डाला गया। वक्त के साथ-साथ मुठ्ठी बंधे हाथों ने हथियार थाम लिए।
फिल्म 1976 के वक्त से शुरू होती है। आपातकाल के समय जंगल की ज़मीन पर खनन की अनुमति दे दी गई है लेकिन लोगों के पुनर्वास के बारे में नहीं सोचा गया। फिल्म दिखाती है कि दस बरस बाद जब काम ज़मीन पर उतरा तो जिसकी भुजाओं में ज़्यादा दम और चुकाने को ज़्यादा दाम थे, वे बाहुबली माफिया बन कर राज करने लगे। लेकिन इस सब में आम आदमी को कुछ नहीं मिला। कल तक वह अपने खेत पर मज़दूरी कर रहा था, आज दूसरे की खान में पत्थर तोड़ रहा है। नई पीढ़ी भटक कर अपराध की राह पर चल पड़ी और डालटनगंज में गैंग तैयार होने लगे।
फिल्म की शुरूआत डॉक्यूमैंट्री स्टाइल में होती है। पुराने फुटेज असर जगाते हैं। बहुत जल्द यह 1986 और उसके भी दस बरस बाद के वक्त को दिखाने लगती है जब एक तरफ चुन्नू पांडेय जैसे बाहुबली राज कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सुरेश लकड़ा जैसे लोग अपने जल, जंगल, ज़मीन को बचाए रखने के लिए आवाज़ उठा रहे हैं। इस फिल्म को लिखने-बनाने वाले श्रीराम डालटन चूंकि इसी इलाके के हैं, सो उन्होंने समस्या को न सिर्फ जड़ से पकड़ा है बल्कि उसे विश्वसनीय ढंग से कैमरे में समेटा भी है। कई जगह पर उन्होंने आम लोगों की भीड़ को फिल्म का इस तरह से हिस्सा बनाया है कि यह फिल्म नहीं बल्कि एक दस्तावेज-सी लगने लगती है। बेहद सीमित संसाधनों में वास्तविक लोकेशनों पर इस तरह से किसी फिल्म को बना पाना दुस्साहस है और श्रीराम ने पूरी कामयाबी के साथ इस दुस्साहस को अंजाम दिया है।
अपने फ्लेवर में जल, जंगल और ज़मीन की बात करती यह फिल्म अपने कलेवर में बहुतेरी जगह अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ हो जाती है। वहां कोयले को कब्जाने की लड़ाई के साथ-साथ दोस्ती और रिश्ते भी थे तो यहां बात सिर्फ यूरेनियम तक ही सीमित रही है। फिल्म में रिश्तों के उतार-चढ़ाव का अभाव खटकता है तो वहीं कहानी कहने की श्रीराम की शैली भी कहीं-कहीं इसके सहज प्रवाह में बाधा डालती है। कुछ और पुख्ता किरदार गढ़ने व कुछ और नाटकीय घटनाओं के समावेश से फिल्म और पैनी हो सकती थी। कहीं-कहीं इसमें तार्किक भूल भी हुई हैं और कुछ जगह सीन-सीक्वेंस भी लंबे खींचे गए हैं। एक बड़ी कमी फिल्म के साथ यह भी रही कि यह समस्या को तो दिखाती है लेकिन उसके हल पर कोई बात नहीं करती। युवाओं का अपराध या नक्सल की राह पकड़ना देखने में भले रुचे लेकिन एक स्वस्थ समाज का निर्माण तो इससे नहीं ही होता। विकास की दौड़ में आम लोगों पर अत्याचार यदि गलत है तो विकास का अंधविरोध भी भला कहां सही है। मुमकिन है सीक्वेल की संभावना के साथ खत्म हुई इस फिल्म के अगले भाग में श्रीराम इस पर ध्यान दे पाएं।
दो-एक को छोड़ फिल्म के तमाम कलाकार अनजाने-से हैं। चुन्नू भैया के किरदार में आकाश खुराना अपने अभिनय सफर के चरम पर दिखते हैं। रवि साह, अरशद खान, रोहित पांडेय, परीक्षित तामुली, अमांडा ब्लूम, उपेंद्र मिश्रा, अश्विनी पंकज, सुधीर संकल्प, मिलिंद उके जैसे कलाकारों के अलावा बाकी के लोग भी प्रभावी काम करते दिखे हैं। गीतों के बोल असरदार हैं और फिल्म के मिज़ाज को पकड़ते हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत-सी जगहों पर मिसफिट रहा है। फिल्म का नाम (स्प्रिंग थंडर) इसकी राह मुश्किल बनाता है जो इसके मिज़ाज का अनुमान दे पाने में नाकाम रहा है।
यह फिल्म अपने संघर्ष के लिए देखे जाने लायक है। संघर्ष जो सामने पर्दे पर दिखता है और संघर्ष जो इसे बनाने के लिए इसकी टीम ने किया। निर्देशक को यदि और संसाधन मिले होते तो यह फिल्म अपने वक्त की मास्टरपीस हो सकती थी। फिर भी इसे देखा जाना चाहिए। अच्छा और सार्थक सिनेमा संसाधनों का मोहताज नहीं होता। यह फिल्म किसी थिएटर या ओ.टी.टी. की बजाय यू-ट्यूब पर मुफ्त में देखी जा सकती है।
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Release Date-26 January, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
हमेशा की तरह इस फिल्म पर भी शानदार लिखा है सर आपनें, अब तो फिल्म देखनी ही होगी।
धन्यवाद दोस्त…