-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक सीन देखिए। भारत की महिला क्रिकेट टीम इंग्लैंड जा रही है। एयरपोर्ट पर उन्हें न कोई छोड़ने आया है न ही कोई उन्हें पहचानता है, न भाव देता है। इन सबका सामान तय सीमा से ज़्यादा वजनी है। सारी की सारी वहीं फर्श पर सामान खोल कर माथापच्ची कर रही हैं कि गर्म कपड़ों में से क्या लें, क्या छोड़ें। तभी वहां हलचल मच जाती है। पुरुष क्रिकेट टीम के खिलाड़ी वहां से गुज़र रहे हैं। हर कोई उनके पीछे पगला रहा है।
दूसरा सीन देखिए। वही महिला खिलाड़ी वापसी में एयरपोर्ट पर अपने सामान का इंतज़ार कर रही हैं कि फिर से पुरुष खिलाड़ी वहां से गुज़रते हैं। एक प्रशंसक अपने पसंदीदा खिलाड़ी के साथ फोटो खिंचवाने के लिए महिला क्रिकेट टीम की कप्तान को ही अपना मोबाइल पकड़ा देती है। उसे क्या, किसी को भी नहीं पता कि वह लड़की भी क्रिकेटर है, नेशनल टीम की सदस्य है, बल्कि उसकी कप्तान मिताली राज है।
कहने को यह फिल्म भले ही भारतीय महिला क्रिकेट टीम की सफलतम खिलाड़ी मिताली राज की बायोपिक हो लेकिन असल में यह इसी फर्क को दिखा रही है कि जब पुरुष और महिला, दोनों ही खिलाड़ी देश के लिए खेल रहे हैं तो उनके बीच भेदभाव क्यों? और यह फिल्म इस फर्क को सिर्फ दर्शकों या प्रशसंकों के स्तर पर ही नहीं बल्कि उनके अपने घर, परिवार, मैदान, ट्रेनिंग कैंप, क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों, प्रायोजकों तक के स्तर पर ले जाती है। यह इस देश की किसी भी महिला खिलाड़ी की कहानी हो सकती है, बल्कि है भी क्योंकि हर किसी ने कमोबेश एक-सा ही संघर्ष किया है और एक-सा ही भेदभाव झेला है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह फिल्म एक ‘संघर्ष गाथा’ से अधिक एक ‘भेदभाव कथा’ बन कर सामने आती है जो हमें उद्वेलित भले करे, आंदोलित और रोमांचित नहीं कर पाती।
अपने यहां खिलाड़ियों की बायोपिक बनाने के तय हो चुके ट्रैक से यह फिल्म भी नहीं हटती। मिताली के बचपन से शुरू करके यह फिल्म उनके नेशनल टीम में चुने जाने और वर्ल्ड कप खेलने तक के लंबे सफर को दिखाती है। यह दिखाती है कि महिला क्रिकेट बोर्ड का ऑफिस, होस्टल, उन्हें मिल रहीं सुविधाएं तो घटिया स्तर की हैं ही, उन्हें मिल रहे सम्मान, शोहरत, रुतबे आदि का स्तर भी हल्का ही है। फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे इन लड़कियों और खासतौर से मिताली की कोशिशों ने भारतीय महिला क्रिकेट को ऊंचे मकाम तक पहुंचाया और इनके प्रति लोगों की सोच बदली।
लेकिन यह फिल्म उतनी प्रभावी नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी। यह फिल्म उतनी सशक्त नहीं है, जितनी बननी चाहिए थी। इस फिल्म का प्रवाह उतना सहज नहीं है, जितना हो सकता था। पहली वजह है इसकी स्क्रिप्ट, जो कहीं भटकी हुई तो कहीं बहुत खिंची हुई लगती है। एक लंबे समय तक यह मिताली के बचपन को ही दिखाती है और हमें लगता है कि बस इसके बाद असली वाला एक्शन शुरू होगा। लेकिन हैरानी होती है कि आत्मविश्वास से भरी मिताली नेशनल कैंप में पहुंचते ही छुईमुई-सी हो जाती है। यहां उसका एक अलग ही संघर्ष शुरू होता है और हम उम्मीद करते हैं कि बस इसके बाद कोई एक्शन होगा। लेकिन इससे पहले कि कुछ बड़ा हो, फिल्म एक अलग ही ट्रैक पर जा निकलती है। आखिरी के 10 मिनट में ‘एक्शन’ होता है तो उसकी तेज रफ्तार और निबटाने वाला लहजा देख कर लगता है कि निर्देशक की दिलचस्पी एक्शन दिखाने में है ही नहीं। यही कारण है कि आप भले ही इस फिल्म के उम्दा विषय को देखते हुए इसके साथ बंधना चाहें, लेकिन यह फिल्म खुद को आपसे दूर रखती नज़र आती है।
इस किस्म की फिल्मों में जो कसमसाहट होनी चाहिए, जो फड़फड़ाहट होनी चाहिए, वह इसमें से लापता है। इनकी बजाय इसमें चरमराहट है, जो बताती है कि निर्देशक श्रीजित मुखर्जी इतने दमदार विषय को कायदे से साध नहीं पाए। उन्हें स्क्रिप्ट के गैरज़रूरी हिस्से निकलवाने और कुछ अन्य बातें उसमें डलवाने के अलावा बाकी चीज़ों को भी कसना चाहिए था। क्रिकेट की पिच पर मिताली राज का सफर काफी लंबा रहा है। उन्हें बहुत पहले अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री तक मिल गया था। लेकिन यह फिल्म उनकी उपलब्धियों की बजाय उनकी मजबूरियों को ज़्यादा दिखाती है। इस तरह की फिल्मों को देखते हुए जो रोमांच होना चाहिए, जो हुमक उठनी चाहिए, जो ललक जगनी चाहिए, वह इसमें से लापता है या कहीं है भी तो बेहद कम।
हालांकि टुकड़ों-टुकड़ों में फिल्म बेहतर बनी है। मिताली का बचपन, भरतनाट्यम के गुरों का क्रिकेट में इस्तेमाल, नूरी से उसकी दोस्ती, क्रिकेट कोच संपत का जुनून, बाद में उसका आवाज उठाना जमता है। लेकिन यही बात पूरी फिल्म के बारे में यकीनन नहीं कही जा सकती। तापसी पन्नू ने मिताली के किरदार को जम कर पकड़ा है। उनकी मेहनत पर्दे से निकल कर आपको छूती है। कोच बने विजय राज़ बेहद प्रभावी रहे हैं। गहरी अदाकारी दिखाई है उन्होंने। बृजेंद्र काला, समीर धर्माधिकारी, मुमताज़ सरकार, शिल्पी मारवाह, बेबी इनायत वर्मा, बेबी कस्तूरी जगनम, नीलू पासवान, देवदर्शिनी आदि का अभिनय भी उम्दा है। गाने सुनने में अच्छे हैं लेकिन बहुत ज़्यादा हैं और सैकिंड हॉफ में तो फिल्म की गति को भी रोकते हैं।
करीब पौने तीन घंटे की लंबाई में भी जब आप मन की बात न कह पाएं तो साफ है कि कन्फ्यूज़न आप के मन में है। इस फिल्म में आए एक श्लोक में ज़िक्र आता है कि जहां भाव है, वहीं आनंद है। इस फिल्म को देख कर इसे बनाने वालों के भाव तो भरपूर महसूस होते हैं, मगर आनंद भरपूर नहीं आता
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-15 July, 2022 on theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Kya bat h sir
Is bar to sixer
धन्यवाद…
बेहतरीन समीक्षा 👌👏
धन्यवाद भाई साहब…
जितना फिल्म के नाम् से लग रहा था शायद फिल्म में वह नहीं है। अच्छा है हम आपके द्वारा लिखे रिव्यू पढ़ लेते हैं वरना लेने के देने पड़ सकते हैं। धन्यवाद जी।
शुक्रिया…