-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
फिल्म शुरू होती है तो नैरेशन आता है-‘इतिहास गवाह है कि चंद विभीषणों और जयचंदों की वजह से हम लोग गुलाम बनते आए हैं।’ आप हैरान होते हैं कि जयचंद तो ठीक, यह विभीषण की वजह से कब, कौन गुलाम बना? विभीषण तो नायक (राम) का मित्र था जिसने खलनायक (रावण) को मरवाने में मदद करके धरती से पाप और असत्य के राज्य का खात्मा करवाया था। खैर…!
पहले कहानी सुन लीजिए। अंग्रेज़ों और उनके पिठ्ठू दारोगा ने शमशेरा के कबीले को बंदी बना लिया और शमशेरा को मार दिया। बरसों बाद उसी शमशेरा के बेटे ने अपने कबीले को आजादी दिलवाई और पिता की मौत का बदला भी लिया।
अब ज़रा कहानी के भीतर झांक कर देखिए कि आखिर ये लोग क्या कहना चाह रहे हैं और किस तरह से कहना चाह रहे हैं। 1871 के भारत का एक काल्पनिक शहर है काज़ा जहां सारे ‘ऊंची जाति’ के लोग अमीर, संपन्न, सुखी, खुशहाल मज़े से रह रहे हैं। अंग्रेज़ी हुकूमत है लेकिन कहीं कोई अत्याचार, कोई दिक्कत, कोई आज़ादी की सुगबुगाहट तक नहीं। हर तरफ रामराज्य है। 14 साल पहले 1857 में इसी देश में हुई क्रांति की कहीं कोई बू तक नहीं है। बस ये लोग परेशान हैं तो खमीरन नाम के ‘नीची जाति’ के उन लोगों से जिन्हें इन्होंने बस्तियों से दूर जंगलों में रहने को भेज दिया था। ये खमीरन लोग इन अमीरन लोगों को लूटते हैं, डाके डालते हैं, इनका पैसा, सोना ले जाते हैं लेकिन पता नहीं उसका क्या इस्तेमाल करते हैं क्योंकि रहते तो ये लोग एकदम गंदे, बिना नहाए, फटे-पुराने कपड़ों में हैं। अब ये सारे अमीर लोग अंग्रेज़ों से कहते हैं कि ये लो 50 किलो सोना और हमें इन खमीरन के जुल्म से आजादी दिलाओ। अंग्रेज़ों का नौकर दारोगा शुद्ध सिंह इन दो-ढाई सौ लोगों को पकड़ कर काज़ा के किले में कैद कर देता है जहां से भागने की कोशिश में शमशेरा मारा जाता है। अब हैरानी यह है कि 25 साल बीत जाते हैं और सिर्फ इस काज़ा के किले को छोड़ कर हर तरफ फिर से सुकून, शांति, सुख-चैन की वर्षा हो रही है। अंग्रेज़ और हिन्दुस्तानी मिल कर रह रहे हैं। बस, काज़ा के इस किले में इन दो-ढाई सौ लोगों को बेड़ियों से बांध कर पता नहीं क्यों, इन पर अत्याचार किए जा रहे हैं। एक दिन शमशेरा का बेटा यहां से भाग कर अपना गिरोह बना कर इन्हें आज़ाद कराने वापस आता है।
कहानी यही बताती है कि आज़ादी की चुल्ल सिर्फ इन नीची जाति वाले खमीरन लोगों को ही है। और इन्हें भी बस, उस किले से आज़ाद होना है, देश-वेश को आज़ाद कराने की इन्हें भी नहीं पड़ी। काज़ा के करीब नगीना नाम का एक कस्बा है जो मंदिरों का शहर है लेकिन लोग यहां अपने पाप छुपाने आते हैं क्योंकि धर्म से बड़ा कोई मुखौटा है ही नहीं-फिल्म यह भी कहती है।
इतिहास में कल्पनाओं का छौंक लगा कर उम्दा कहानियां बनती रही हैं। मनोज कुमार वाली ‘क्रांति’ और आमिर खान वाली ‘लगान’ इसकी उन्नत मिसालें हैं। लेकिन यशराज फिल्म्स तो जैसे बर्बादी लाने पर तुला है। पहले इन लोगों ने ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ से दर्शकों को ठगा जो आसानी से ‘कन्फेशन्स ऑफ ए ठग’ नामक उपन्यास पर आधारित हो सकती थी, लेकिन हुई नहीं। अब इस फिल्म में 1871 का साल दिखा कर ये लोग आपराधिक जनजाति अधिनियम के नाम पर ठग रहे हैं जिसे अंग्रेज़ी सरकार ने उसी साल लागू करते हुए देश की कई जनजातियों को ‘अपराधी’ घोषित कर दिया था। फिल्म के शमशेरा का स्टाइल सुल्ताना डाकू वाला है जो बीसवीं सदी के दूसरे दशक में सक्रिय था लेकिन यह फिल्म जिम कॉर्बेट की किताब ‘माई इंडिया’ के उस अध्याय ‘सुल्ताना-इंडियाज़ रॉबिनहुड’ पर भी आधारित नहीं निकली। कल्पनाओं का ऐसा भी छौंक क्या लगाना कि आप इतिहास को ही गायब कर दें। इन्हें समझना होगा कि छौंक दाल-सब्जी में लगता है, हवा में नहीं।
अपने तेवर से ‘क्रांति’ और अपने कलेवर से ‘बाहुबली’ व ‘के.जी.एफ.’ लगती यह फिल्म अपने फ्लेवर से ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ हो जाती है जिसमें कभी भी, कुछ भी, कहीं भी हो रहा है और इधर थिएटर में बैठे दर्शक उससे जुड़ाव ही महसूस नहीं कर पा रहे हैं। न खमीरन पर हो रहे अत्याचार हमें दहलाते हैं, न उनकी बगावत हमें उकसाती है। फिल्म के भीतर ऑफसैट प्रैस से छपे सुंदर हिन्दी में लिखे बैनर दिखते हैं लेकिन फिल्म की लेखिका खिला बिष्ट का नाम पर्दे पर खिला बीस्ट लिखा हुआ आता है। हिन्दी की गलतियां तो बहुतेरी जगह हैं-कहीं शब्दों की तो कहीं वाक्यों की भी। अब बेचारे निर्देशक करण मल्होत्रा हर तरफ तो पैनी नज़र नहीं रख सकते थे न। उन्हें यशराज से मिले करोड़ों रुपए भी तो खर्चने थे कि नहीं!
रणबीर कपूर बेचारे बहुत मेहनत करते हैं। उनकी मेहनत दिखती भी है। संजय दत्त ने खलनायक के रोल में जान फूंकी है। रोनित रॉय, इरावती हर्षे व अन्य कलाकार सही रहे। सौरभ शुक्ला अपनी अदाकारी और संवाद अदायगी से बेहद प्रभावी रहे। फिल्म की नायिका वाणी कपूर की बात भी अवश्य होनी चाहिए। एक वही तो हैं जिनके पर्दे पर आने से आंखों को सुकून मिलता है, भले ही उसकी वजह उनकी एक्टिंग नहीं ‘कुछ और’ हो। फिल्म में गाने बहुत सारे हैं। इतने सारे कि थोड़े ही समय में ये खिजाने लगते हैं। हां, इसके सैट, कम्प्यूटर ग्राफिक्स, कैमरावर्क, एक्शन आदि सब भव्य है। लेकिन उस भव्यता का क्या फायदा जो एक कमज़ोर कहानी के इर्दगिर्द रची जाए और उसे सहारा तक न दे पाए। संसाधनों की भव्य बर्बादी है यह फिल्म।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-22 July, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
पैसे बचा दिए आपने। 🤔
हृदय से आभार 😅
पेड़े भिजवा दीजिए…
Aapke dwara likhe review ka hi intzaar tha. Aapne kafi saafgoi se doodh ka dhoodh. Pani ka pani ker diya… Thank you so much.
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धन्यवाद…
आपका review सर्वदा की भांति अत्यंत रोचक है। बात समझ में आ गई। नहीं जायेंगे ये सनीमा देखने।
धन्यवाद
रणबीर कपूर बेहद अच्छे अभिनेता हैं , लेकिन ये चुल्ल करन मल्होत्रा जैसे लोगों की है जो करन जौहर का तो भट्ठा बैठा ही चुके हैं अब यशराज का दिवाला निकालेंगे, बिना लेखकों के जब तक फिल्में बनाएंगे, यही होगा ।
कैंप यूँ ही ढह जाएंगे