-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
पिछली सदी के आखिरी दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से गांव में साठ की उम्र पार कर चुकीं दो दादियों ने निशानेबाजी शुरू की और देखते ही देखते ढेरों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुकाबले जीत कर पदकों का ढेर लगा दिया और दुनिया भर में शूटर-दादी के नाम से मशहूर हुईं। पर क्या इनका यह सफर इतना आसान रहा होगा? पूरी ज़िंदगी घूंघट के अंदर काटने और हर किसी की चाकरी करने के बाद समाज के पितृसत्तात्मक रवैये के सामने उठ खड़े होने की हिम्मत कहां से आई होगी इनके भीतर? कैसे इन्होंने उन तमाम बाधाओं को लांघा होगा जो इनकी राह में कभी पति, कभी बेटे, कभी समाज के तानों, कभी परंपराओं की बेड़ियों के रूप में सामने आई होंगी। यह फिल्म इनके इसी सफर को, इस सफर के दौरान किए गए संघर्ष को दिखाती है और बड़े ही कायदे से दिखाती है।
शूटर-दादियों के बारे में जिसने भी सुना होगा, वह इनकी हिम्मत, हौसले और प्रतिभा का कायल हुए बिना नहीं रहा होगा। इस किस्म की कहानी बड़े पर्दे पर मुख्यधारा के सिनेमा से आए तो यह दुस्साहस है और इस किस्म के दुस्साहस को करने वाले लोगों को सलाम किया जाना चाहिए। लेखक बलविंदर सिंह जंजुआ ने इस कहानी को इस तरह से फैलाया है कि यह प्रेरणा देने के साथ-साथ मनोरंजन भी करती है और हर कुछ देर में जता-बता जाती है कि किस तरह से अपने समाज का एक बड़ा हिस्सा औरतों और मर्दों के बीच की गैर-बराबरी को न सिर्फ स्वीकारे और अनदेखा किए बैठा है बल्कि उसे यह गैर-बराबरी जायज़ भी लगती है। संवाद कई जगह गहरा असर छोड़ते हैं, टीस जगाते हैं, आंखें नम करते हैं और यहीं आकर यह फिल्म सफल हो जाती है। हालांकि बीच में कई सारे सीन गैर ज़रूरी भी लगते हैं और क्लाइमैक्स बेहद खिंचा हुआ और कुछ हद तक कमज़ोर भी। 10-15 मिनट की एडिटिंग इस फिल्म का निशाना और सटीक बना सकती थी।
बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म दे रहे तुषार हीरानंदानी ढेरों मसाला-कॉमेडी फिल्मों के लेखक रहे हैं। यह उनकी समझदारी रही कि उन्होंने इस फिल्म को लिखा नहीं। अपने निर्देशन से वह जताते हैं कि उनके हाथ में कायदे की कहानी आए तो वह उसे अच्छे से जमा सकते हैं। किरदारों की भाषा-बोली, कपड़ों-लत्तों पर की गई मेहनत पर्दे पर दिखती है। गीत-संगीत ज़रूरत भर है और फिल्म के फ्लेवर को पकड़े हुए है। रियल लोकेशन फिल्म के असर को बढ़ाती हैं। कैमरा-वर्क और बैकग्राउंड म्यूज़िक भरपूर साथ निभाते हैं।
तापसी पन्नू और भूमि पेढनेकर ने बड़ी ही सहजता से अपने किरदारों को जिया है। कुछ एक जगह उनका मेकअप ज़रूर गड़बड़ है, उनके भाव और भंगिमाएं नहीं। प्रकाश झा और विनीत कुमार सिंह ने भी झंडे गाड़े हैं। काम तो विनीत के साथी बने नवनीत श्रीवास्तव का भी दमदार है।
‘दंगल’ ने सवाल पूछा था कि म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के…? यह फिल्म बताती है कि छोरियां ही नहीं हमारी दादियां भी किसी से कम नहीं हैं। यदि औरतें चाहें तो वे न सिर्फ हवा का रुख बदल सकती है बल्कि समाज की उन गिरहों को भी खोल सकती है जो हमारी बेटियों-औरतों के रास्ते का रोड़ा बनी हुई हैं। इस फिल्म को इसकी हल्की-फुल्की कमियों को नज़रअंदाज़ करके देखिए। इसे देखिए और अपनी बेटियों के अलावा अपने बेटों को दिखाइए ताकि उन्हें समझ आ सके कि उन्हें रोड़ा बनना नहीं है, रोड़े हटाने हैं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 October, 2019
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)