-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
अमेज़न प्राइम वीडियो की सफल और लोकप्रिय वेब-सीरिज़ ‘पंचायत’ के तीसरे सीज़न में फुलेरा गांव में राजनीतिक सरगर्मियां शुरू हो गई थीं और माहौल बदलने लगा था। प्रधान जी पर गोली चली थी, रिंकी और सचिव जी की नज़दीकियां बढ़ चुकी थीं और भूषण व क्रांति देवी ने प्रधान व मंजू देवी के विरुद्ध कमर कस ली थी। ऐसे में यह तो साफ था कि इस चौथे सीज़न का फोकस राजनीति पर ही रहेगा लेकिन इस फोकस के चलते ‘पंचायत’ अपना मूल स्वाद खो बैठेगी, यह अंदेशा नहीं था। लेकिन ऐसा हुआ है और यही कारण है कि ‘पंचायत’ का यह चौथा सीज़न अच्छा तो लगता है, मगर इसे देखते हुए वह ‘मज़ा’ नहीं आता जिस ‘मज़े’ के लिए यह वेब-सीरिज़ जानी जाती है और जिसके चलते इसने हमारे दिलों पर कब्जा जमाया था।
किस्सों से जम गई ‘पंचायत’ (Review Season 1)
‘पंचायत’ के पिछले तीनों सीज़न के रिव्यू में मैंने ज़िक्र किया है कि इसे लिखने वाले हर चीज़ को खींचने में लगे हुए हैं जिससे साफ लगता है कि वे लोग कई सारे सीज़न बनाने का लालच अपनी मुट्ठी में लिए बैठे हैं। बावजूद इसके यह सीरिज़ हमें पसंद आती रही है क्योंकि एक तो यह हमें ओ.टी.टी. पर मौजूद अधिकांश कहानियों से परे एक छोटे-से गांव में ले जाती है जहां की मिट्टी में अभी भी सौंधापन बचा हुआ है और दूसरे यह इस उम्मीद को कायम रखती है कि अभी सब कुछ उतना खराब नहीं हुआ है। लेकिन ‘पंचायत’ का चौथा सीज़न देखिए तो लगता है कि इसे बनाने वाले कहानी को जबरन खींच-खींच कर सुस्त रफ्तार से कहानी कहने का कोई विश्व रिकॉर्ड बनाना चाहते हैं। इस बार के आठों एपिसोड में सिर्फ चुनावों की ही बात है जिससे इसमें एकरसता आई है और कुछ बहुत नया या हट के वाली सामग्री न होने के कारण बोरियत हावी रही है।
यह जो है ज़िंदगी की रंगीन ‘पंचायत’ (Review Season 2)
हालांकि लेखन के स्तर पर इस बार परिपक्वता बढ़ी है। संवाद भी कई जगह सटीक लिखे गए हैं और कहानी का बहाव भी पहले तरह अलग-अलग किस्सों में भटकने की बजाय एक ही पटरी पर रहा है। पर जब छोटी-सी बात को जबरन खींचा जाए तो वह महसूस होता है और इस सीरिज़ के प्रशंसकों को चुभता भी है। कई जिज्ञासाओं का खुल कर जवाब न मिल पाना भी अखरता है।
इस बार के ‘पंचायत’ में फुलेरा की राजनीति के बरअक्स यह सीरिज़ असल में हमें पूरे देश की राजनीति की झलक दिखाती है जहां निष्पक्ष रह पाना मुमकिन नहीं, जहां काम से ज़्यादा काम के दिखावे पर ध्यान दिया जाता है, जहां मुफ्त की रेवड़ियों से जनता को लुभाने की होड़ रहती है, जहां महिला प्रत्याशियों को आगे करके पुरुष राजनीति का खेल खेलते हैं और जहां हर गलत चीज़ को किसी न किसी तरह से सही साबित कर दिया जाता है। लेकिन इस बार की ‘पंचायत’ का यही रंग उन दर्शकों को चुभ सकता है जो असल में इसे हल्के-फुल्के मनोरंजन और हंसी-ठहाकों के लिए देखना चाहते हैं। इसके लिए भी हालांकि हर एपिसोड में कुछ न कुछ व्यवस्था की गई है लेकिन वह काफी नहीं रही।
छोटी-सी कहानी से सारी ‘पंचायत’ भर गई (Review Season 3)
‘पंचायत’ के अतरंगी किरदारों को दर्शक पसंद करते आए हैं। उन्हें देखना इस बार भी भाता है और इसकी बड़ी वजह उनका अभिनय ही है। रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, जितेंद्र कुमार, फैज़ल मलिक, चंदन राय, संविका, अशोक पाठक, दुर्गेश कुमार, सुनीता राजवर, पंकज झा, बुल्लू कुमार, अमित कुमार मौर्य वगैरह खूब जंचे। खासतौर से आखिरी एपिसोड में इनमें हर किसी ने अपने चरम को छुआ। सांसद बने स्वानंद किरकिरे अच्छे लगे और एक एपिसोड में प्रधान जी के ससुर बन कर आए अभिनय के वटवृक्ष राम गोपाल बजाज छाए रहे।
एक एपिसोड में फिल्म ‘पीपली लाइव’ के गीत ‘देस मेरा…’ को खूब बजाने वाली ‘पंचायत’ इस बार देश के रंग-रंगीले प्रजातंत्र को दिखा कर लुभाती रही। ‘पंचायत’ के चाहने वाले तो खैर इसे देखेंगे ही लेकिन जिन्होंने कभी इसे न देखा हो, वे लोग खिंचे चले आएं और इसके दीवाने हो जाएं, ऐसा नहीं लगता। अगर ‘पंचायत’ लिखने-बनाने वाले यूं ही सुस्त लेखन पर टिके रहे तो मुमकिन है कि दर्शक इसके अगले सीज़न के लिए कोई उत्सुकता न दिखा पाएं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 June, 2025 on Amazon Prime Video
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
इसी पंचायत और पँवारे का तो इंतजार था । लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।
Thanks.
Not bad but No entertainment and magnetic attraction like earlier ones.