-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
बॉस्केट बॉल टीम का फ्रस्टेटिड जूनियर कोच शराब पीकर गाड़ी चलाते हुए पुलिस की गाड़ी को ठोक देता है। अदालत उसे सज़ा सुनाती है कि वह बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों की एक बॉस्केट बॉल टीम को तीन महीने तक प्रशिक्षित करेगा। कोच भरी अदालत में पूछ बैठता है-तीन महीने तक पागलों को सिखाऊंगा मैं…? सिखाने जाता है तो वह पूछता है-मैं टीम कैसे बनाऊं, टीम तो नॉर्मल लोगों की बनती है न…?
इतनी कहानी तो आपको इस फिल्म का ट्रेलर भी बता देता है। ट्रेलर तो यह भी बताता है कि इन ‘पागलों’ को कोचिंग देते हुए यह कोच अपने बाल नोच रहा है। लेकिन ट्रेलर से आगे बढ़ कर यह फिल्म दिखाती है कि ज़माना जिन्हें ‘नॉर्मल’ तक नहीं मानता वे लोग न सिर्फ हमसे कहीं ज़्यादा नॉर्मल हैं बल्कि कुछ मायने में तो बेहतर भी हैं। फिल्म यह भी बताती है कि हर किसी का अपना-अपना नॉर्मल होता है, हमें उसे पहचानने और स्वीकारने को राज़ी होना चाहिए।
बरसों पहले आमिर खान की ही ‘तारे ज़मीन पर’ में बौद्धिक तौर पर अलग बच्चों की बात करते हुए कहा गया था-‘सब जानते हैं कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं पर हम लोग लगे हैं उन्हें खींच कर लंबा करने में…।’ अब यह फिल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ उससे भी एक कदम आगे जाकर ऑटिज़्म और डाउन सिंड्रोम वाले लोगों के पाले में खड़े होते हुए इस बात को अंडरलाइन करती है कि इन लोगों को समझा जाए तो ये न सिर्फ बहुत कुछ सीखने की क्षमता रखते हैं बल्कि हम जैसे ‘नॉर्मल’ लोगों को काफी कुछ सिखाने का भी दम रखते हैं।
हालांकि इस फिल्म की कहानी का ढांचा पारंपरिक है। समाज के हाशिए पर मौजूद कुछ बच्चों का जुटना और जीत हासिल करने के लिए भिड़ जाना हमने खूब देखा है। यही कारण है कि शुरू में इसकी कहानी बनावटी-सी लगती है। लेकिन धीरे-धीरे फिल्म अपना सुर पकड़ती है और आगे बढ़ते-बढ़ते दिलों पर काबिज हो जाती है। अपने मूल विषय के अतिरिक्त यह फिल्म अन्य कुछ बातों पर भी ध्यान देती है। इनसे फिल्म में कुछ नए रंग तो आते हैं लेकिन इनमें से कुछ बातें गैरज़रूरी लगती हैं और कुछ सीन ज़रूरत से ज़्यादा लंबे। इन्हें एडिट करके फिल्म को और कसा जाए तो इसका असर बढ़ सकता है। दिव्य निधि शर्मा की लिखाई फिल्म को अंत में जिस ऊंचाई पर ले जाती है उससे रास्ते में आई कमियों के दाग धुल जाते हैं। फिर भी मलाल रह जाता है कि इसे कस कर और खींच कर लिखा व बनाया जाता तो यह बेहतरीन हो सकती थी। बावजूद इसके यह फिल्म आपको मुस्कुराने की वजह देती है, हंसाती है, भावुक भी करती है और बता जाती है कि एक ‘नॉर्मल’ इंसान होना असल में कैसा होता है।
‘शुभ मंगल सावधान’ वाले डायरेक्टर आर.एस. प्रसन्ना ने अपने काम में कोई कमी नहीं आने दी है। सीन-मेकिंग हो या कलाकारों से काम निकलवाना या फिर कैमरा-प्लेसिंग, उन्होंने फिल्म के प्रभाव को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है। गीत-संगीत हालांकि कोई बहुत मारक नहीं है लेकिन फिल्म के संग घुलमिल जाता है।
(रिव्यू-सावधानी हटी दुर्घटना घटी)
आमिर खान का किरदार आसान नहीं रहा होगा। एक हीरो जो असल में हीरो जैसा नहीं है। उसमें कमियां हैं, फ्रस्टेटिड है, किसी भी आम इंसान की तरह। आमिर ने इस किरदार का सुर पकड़ते हुए उम्दा काम किया है। उनकी टीम में जो अतरंगी किरदार हैं वे इस फिल्म की जान हैं। इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों के बेमिसाल अभिनय किया है। ऐसा अभिनय, जो सच लगता है। इन सब को सलाम। जेनेलिया देशमुख… उफ्फ। मन करता है कि वह बोलती रहें, हम सुनते रहें, वह पर्दे पर दिखती रहें, हम देखते रहें। डॉली आहलूवालिया तिवारी, गुरपाल सिंह और बृजेंद्र काला ने बेहद सराहनीय और प्रशंसनीय ढंग से अपने पात्रों को निभाया।
अपने निचोड़ में यह फिल्म इंसानी अंह की बात करती है। बताती है कि हमारे भीतर से ईगो, अहंकार, गुरूर निकल जाए तो न सिर्फ हम खुद रोशन होंगे बल्कि दूसरों को भी प्रकाश दे सकेंगे। इस फिल्म के ऑटिज़्म पीड़ित बच्चों की निश्छलता, मासूमियत और ईमानदारी देख कर यह ख्याल भी आता है कि काश पूरी दुनिया को ऑटिज़्म हो जाए। फिर न कहीं कोई बवाल होगा, न भिड़ंत।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-20 June, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
फिल्म के second half की अधिकतर critics ने तारीफ़ की है अब आपका review पढकर लग रहा है कि जैसा सोचा था फिल्म वैसी ही है ..जल्द ही OTT पर आने पर देखूंगा
धन्यवाद
ये दुनिया जिस तरह की दीखती है वैसी है नहीं। मगर, सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है और यदि सुधार करने वाले चाह लें तो काफी कुछ बदला जा सकता है। बस एक ही चीज की कमी रह जाती है सुधार करने की मंशा और समय का साथ। इस समीक्षा में आपने इस फिल्म की कहानी को बिल्कुल सही तरीके से सुनाया, समझाया है। ऐसी फिल्में शायद कुछ लोगों का मन बदल सकें जो कुंठित हो कर अपने अंदर छुपे सद्गुणों को दबा कर हार माने बैठे हैं। बढ़िया समीक्षा दीपक भाई 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
धन्यवाद भाई साहब
एक नज़रिया पेश किया है इस फ़िल्म ने… औऱ अगर आमिर कों “अमीर” कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी…. बेहद दिल को छूने औऱ दिमाग़ को झाझोड़ने वाली फ़िल्म…
धन्यवाद दुआ जी का एक शानदार रिव्यु क़े लिए।
आज ही इस मूवी को देखी। तारे जमीन पर और दंगल का जबरदस्त मॉकटेल। मॉकटेल इसलिए क्योंकि देखकर मन को सुकून मिला सुरूर नहीं। और हां, दुनिया के सभी लोग अपना गुरुर याने इगो छोड दें तो दुनिया की आधी समस्या समाप्त हो जाए। आपकी समीक्षा को मेरी तरफ से फाइव स्टार।
धन्यवाद, आभार