-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कुछ फिल्में देखने के बाद ही नहीं बल्कि देखते समय ही मन के एक कोने में ये सवाल उठने लगते हैं कि आखिर इन्हें बनाने की प्रक्रिया क्या रही होगी? कैसे इस कहानी पर किसी निर्माता को राज़ी किया गया होगा? इसके लिए पैसे कहां से जुटाए गए होंगे? बड़े कलाकारों को कैसे राज़ी किया गया होगा? इसकी शूटिंग के लिए जगह कैसे तय की गई होगी? किस तरह से एक नामी ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म को यह फिल्म दी गई होगी? वगैरह-वगैरह…! और फिर मन के दूसरे कोने से आवाज़ आती है-अरे भोले, लगता है तू भूल गया कि बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा…!!!
बुल्गारिया (यह यूरोप का एक देश है) में रह रहे एक अमीर भारतीय बिज़नैसमैन का कत्ल हो जाता है। शक सीधे उसके परिवार वालों पर जाता है। ज़ाहिर है कि वह अपनी दौलत के चलते मारा गया। बुल्गारिया की पुलिस के तीन भारतीय अफसर इस केस को सुलझाने में लगे हैं। किस ने किया होगा यह कत्ल? क्यों किया होगा? क्या घर का ही कोई आदमी है या फिर…?
अब आप चाहें तो पूछ सकते हैं कि जब मरने वाला भारतीय, पुलिस वाले भारतीय तो फिल्म की कहानी बुल्गारिया में क्यों…? जवाब के लिए आप पहले पैरा की आखिरी लाइन पढ़ लीजिए कि-बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा…!!!
दरअसल इस किस्म की फिल्में ‘सिनेमा’ को समृद्ध करने के लिए नहीं बल्कि एक ‘प्रपोज़ल’ की तरह बनाई जाती हैं जिनमें एक ठीकठाक किस्म की कहानी पर कुछ ठीकठाक चमकते चेहरे लेकर किसी ऐसी लोकेशन पर शूटिंग की जाती है जहां से ठीकठाक-सी सब्सिडी मिल जाए और फिल्म को किसी ऐसे ठीकठाक से ओ.टी.टी. को चेप दिया जाता है जहां ठीकठाक किस्म की बुद्धि वाले दर्शक इसे ठीकठाक संख्या में मिल जाते हैं और फिर कुछ दिन बाद एक बड़ी पार्टी कर के ढोल बजा दिया जाता है कि हमारी फिल्म हिट हो गई। चलो, अब अगला मुर्गा तलाशें।
यह फिल्म दृश्यों के पीछे से नैरेशन देकर अपनी बनावट में कुछ ट्विस्ट लाने की कोशिश करती है। लेकिन इसे लिखने-बनाने वाले भूल गए कि नैरेशन यदि बार-बार दिया जाए तो इसका अर्थ होता है कि लिखने वालों के पास लिखने के लिए और दिखाने वालों के पास दिखाने के लिए कुछ खास नहीं है सो उन्हें कमेंटरी का सहारा लेना पड़ रहा है। शेरदिल के बारे में बताया गया है कि वह गोरों के लिए शेरलॉक है, देसियों के लिए व्योमकेश और मम्मी-पापा के लिए करमचंद। लेकिन उसे जिस किस्म की जासूसी और जिस तरह से करते हुए दिखाया गया है, उससे इन तीनों जासूस नायकों का मज़ाक ही उड़ता दिखाई देता है।
फिल्म में एक मर्डर है, उससे जुड़ी मिस्ट्री है लेकिन इससे जुड़ा रोमांच गायब है। इस फिल्म को देखते समय दिल में धुकधुकी ही नहीं होती कि मरने वाला क्यों मरा और किसने उसे मारा। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि यह दर्शक से जुड़ नहीं पाती। बार-बार आते अजीब-से बैकग्राउंड म्यूज़िक से यह फिल्म ‘कूल’ दिखने की कोशिश करते-करते असल में ‘ठंडी’ दिखने लगती है। सागर बजाज, रवि छाबड़िया और अली अब्बास ज़फर की लिखाई सपाट है तो रवि छाबड़िया के निर्देशन में भी ऊंचाइयां-गहराइयां नहीं हैं।
दिलजीत दोसांझ क्यूट लगे हैं। उनकी अदाकारी की सहजता के चलते उनके प्रशंसक इस फिल्म को देख सकते हैं। डायना पेंटी जैसी खूबसूरत लड़की पूरी फिल्म में बिना बात के मुंह सुजाए रहे तो भला किसे मज़ा आएगा। रत्ना पाठक शाह पर्दे पर खड़ूस दिखने में उस्ताद हो चुकी हैं। बोमन ईरानी, बनिता संधू, सुमित व्यास, मुकेश भट्ट आदि ठीक रहे। चंकी पांडेय ने असर छोड़ा। बुडापेस्ट की खूबसूरती अच्छे-से दिखाई गई। शायद इस फिल्म को बनाने का मकसद भी यही था।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-20 June, 2025 on ZEE5
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Jabardast….Tag Line ne kamaal kar diya… “Baap Bada na Bhaiyaa…..Sabe Bada …..!!!!
TheekThaak ke chakkar aur shayad kuch auron ka ThokThaak na ho jaaye…. Aaj ke Bollywood walon ka level Gir Chuka hai ya Uth Chuka hai.. Yahi iss film ko dekhkar Nishkarsh nikala ja sakta hai.. Baaki sabhi kuch to Review mei likha he gaya hai…. Thanks