-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
दो जुड़वां भाई। बिन मां-बाप के। एक बुआ के यहां लंदन में पला, दूसरा चाचा के यहां पंजाब में। एक को जिस लड़की से प्यार है, उसे उसकी मां पसंद नहीं करती। दूसरे को जिस लड़की से प्यार है, उसे उसका बाप पसंद नहीं करता। तभी बीच में आ जाती है तीसरी लड़की। अब इस ढेर सारी कन्फ्यूजन को सुलझाने और सबको मनाने का जिम्मा आता है करतार सिंह पर जो एक लड़के का चाचा है तो दूसरे का मामा। पर दिक्कत यह है कि करतार का हर आइडिया पलट कर औंधे मुंह आ गिरता है।
बड़ा अमीर परिवार, ढेर सारे किरदार, ढेर सारा प्यार, थोड़ी तकरार, अंत में सबका बेड़ा पार। इस किस्म के फ्लेवर वाली और पंजाबी शादी के माहौल वाली ढेरों फिल्में आ चुकी होंगी। ‘मुबारकां’ में दिखाई गई परिस्थितियां पराई नहीं लगतीं। पहले ही सीन से कहानी पटरी पर आती है और पूरा वक्त यह आपको बांधे हुए उस पटरी को नहीं छोड़ती। बच्चों की हिचक, बड़ों की मनमर्जियां, जरा-सी बात पर आपसी ईगो के चलते तकरार, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिशें और अंत में फिर से एक हो जाने की इस कहानी में झांका जाए तो कहीं न कहीं अपने और अपनों के अक्स भी तलाशे जा सकते हैं। खासतौर से पंजाबियों को तो यह अपने ही किसी घर की कहानी लगेगी। फिल्म साफतौर पर मैसेज भी देती है कि रिश्तों में अहं आ जाए तो दूरियां बढ़ती ही हैं।
फिल्म की पहली खासियत यह है कि इसे लिखा बहुत सलीके से गया है। पंजाबी परिवारों के माहौल के साथ-साथ वहां अक्सर बोले जाने वाली कहावतें, ताने, मुरकियों आदि का जिक्र बताता है कि इसे लिखने वालों के पास जानकारी और समझ, दोनों मौजूद थे। ऊपर से राजेश चावला के लिखे संवादों ने असर को और गाढ़ा ही किया है। बतौर निर्देशक अनीस बज्मी हंसी-खुशी वाली, शादी के माहौल वाली फिल्में बनाने में अच्छा नाम कमा चुके हैं। इस बार उन्होंने अपनी उसी महारथ को जम कर दिखाया है। कहानी चूंकि तमाम अमीर लोगों के इर्दगिर्द घूमती है इसलिए पंजाब हो या लंदन, हर जगह की प्रोडक्शन वैल्यू, चमकते चेहरे, लकदक कपड़े और भव्यता दर्शकों की आंखों को सुहाती है। तकनीकी तौर पर भी फिल्म उन्नत है। फिर चाहे वह लोकेशंस हों, कैमरा वर्क और खासतौर पर साउंड रिकॉर्डिंग, जो हर छोटी से छोटी चीज को भी कायदे से पकड़ती है। गाने, संगीत और बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म के माहौल के मुताबिक है और असर छोड़ता है।
जुड़वां भाइयों करण और चरण के किरदारों में अर्जुन कपूर ने भरसक मेहनत की है और यह फिल्म उन्हें अच्छा एक्टर कहलवाने का ही काम करती है। इलियाना डिक्रूज और नेहा शर्मा जंचती हैं जबकि आथिया शैट्टी सुस्त-सी दिखती हैं। मजमा लूटने का काम तो किया है अनिल कपूर ने। साठ की उम्र पार कर चुके अनिल की एनर्जी और अदाएं देखने लायक हैं। वहीं एक्टिंग का मैदान मारा है पवन मल्होत्रा और रत्ना पाठक शाह ने। अपने लाउड किरदार में भी पवन जो भंगिमाएं दिखाते हैं वह उनके उम्दा कलाकार होने की निशानी है। करण कुंद्रा, संजय कपूर, राहुल देव, ललित पारिमू, गुरपाल सिंह, गीता अग्रवाल शर्मा जैसे तमाम सहयोगी कलाकार फिल्म को ऊंचा ही उठाते हैं।
काॅमेडी थोड़ी और चुटीली हो सकती थी। अर्जुन थोड़े और असरदार हो सकते थे। आथिया की जगह कोई और लड़की हो सकती थी। एक सैड गाना फिल्म से हट सकता था। फिल्म थोड़ी छोटी भी हो सकती थी। अजी छोड़िए इन बातों को। एकदम साफ-सुथरी, परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकने वाली, कदम-कदम पर हंसाने वाली, ठहाके लगवाने वाली, थिरकाने वाली और दो-एक जगह आंखों में नमी ला देने वाली इस फिल्म को देखिए और दिखाइए, आप खुश होंगे और आपके अपने भी।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Release Date-28 July, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)