-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
केम छो…? मजा मा…!
हालचाल पूछने के लिए गुजराती लोगों का यह सवाल और इसका जवाब ठीक वैसा ही है जैसे हिन्दी पट्टी के लोगों का ‘और सुनाओ…? सब बढ़िया…!’ होता है। हालांकि ज़्यादातर मौकों पर सवाल पूछने वाले और जवाब देने वाले, दोनों को ही यह पता होता है कि सब बढ़िया, सब मजा मा नहीं है। यह फिल्म और इसकी कहानी भी ठीक ऐसे ही हैं। ऊपर से सब बढ़िया, लेकिन अंदर से…!
नाम से गुजराती लगने वाली यह फिल्म असल में गुजरात की पृष्ठभूमि में एक हिन्दी फिल्म है। मनोहर और पल्लवी पति-पत्नी हैं। एक शादीशुदा बेटी और अमेरिका में रह रहे एक शादीलायक बेटे तेजस के माता-पिता। बेटे को अमेरिका में बरसों से रह रहे एक पंजाबी परिवार की बेटी ऐशा भाती है जिसके मां-बाप को सब कुछ परफैक्ट चाहिए, एकदम भारतीय, संस्कारों में लिपटा हुआ दामाद, उसका ज़मीन से जुड़ा हुआ परिवार, सब कुछ। लेकिन सगाई से ठीक पहले एक वीडियो सामने आता है जिसमें तेजस की मां पल्लवी चिल्ला कर कह रही है-‘मैं लेस्बियन हूं, मर्दों से ज़्यादा औरतें पसंद हैं मुझे।’ अब क्या होगा? क्या यह सच है? सच है तो क्या उसका पति, बच्चे, होने वाले समधी, यह समाज उसके इस सच को स्वीकार कर पाएगा? और सबसे बड़ी बात कि क्या वह खुद बरसों से छुपा कर रखे गए अपने इस सच की चुभन बर्दाश्त कर पाएगी?
स्त्री-पुरुष के यौन अधिकारों, उनकी पसंद-नापसंद को लेकर समाज और सिनेमा में गाहे-बगाहे बहस होती है। खुद को ‘अलग’ बताने वाले लोगों का मानना है कि उन्हें पूरा हक है कि वह कैसे जिएं, किसे पसंद करें, किसके साथ हमबिस्तर हों। लेकिन यह भी सच है कि बहुसंख्य समाज अभी इस बहस को सुनने के लिए भले ही तैयार हो, समझने के लिए तैयार नहीं है। दो ‘लेस्बियन’ (समलैंगिक औरतों) के आपसी संबंधों के बारे में पहली बार सुनने पर एक आम प्रतिक्रिया यही होती है कि दो औरतें आपस में क्या और कैसे करती होंगी? यह सवाल इस फिल्म में भी है और इसका जवाब भी, जो भले ही खट से आकर फट से निकल जाता है।
यह फिल्म कहना चाहती है कि एक औरत बेटी, पत्नी और मां होने के अलावा भी कुछ होती है, हो सकती है। उसका अपना भी एक वजूद होता है, उसकी अपनी भी चाहतें होती हैं। लेकिन क्या कभी उससे उसकी पसंद-नापसंद पूछी गई? क्या उसके पति में इतनी हिम्मत है कि वह उसके सच को अपनी मर्दानगी पर प्रहार न समझ ले? क्या उसके बच्चे यह स्वीकार कर सकते हैं कि उनकी मां कुदरती तौर पर ‘अलग’ है? यह सब कह पाने में यह फिल्म कामयाब भी हुई है। लेकिन इसका यह ‘कहन’ हल्का है, कच्चा है, उथला है, झीना है।
कहानी में कमी नहीं है और उसका प्रवाह भी कमोबेश सही दिशा में रहा है। दिक्कत सुमित बठेजा की लिखी पटकथा के साथ है जो इसे ऐसे-ऐसे मोड़ों पर ले जाकर छोड़ देती है कि यह डगमगाने लगती है। थोड़ा संभल कर यह आगे बढ़ती है कि फिर कोई न कोई गड्ढा इसके आड़े आ जाता है। कह सकते हैं कि आनंद तिवारी के निर्देशन में यह फिल्म भटकी भले ही न हो, लेकिन पूरी तरह से कसी-बंधी भी नहीं है और इसका यही ढीलापन सारे मजे पर पानी फेरने के लिए काफी है।
ऊपर से इसके किरदार कायदे से विकसित नहीं किए गए। अमेरिका में बरसों रहने के बावजूद दकियानूसी सोच रखने वाले जोड़े के ज़रिए जो कटाक्ष किए गए हैं, वे असरदार न होने के कारण फिल्म को कमज़ोर बनाते हैं। सहायक किरदारों का उभर कर न आ पाना इसे हल्का बनाए रखता है। माधुरी दीक्षित ने अपने किरदार को थामे रखा है लेकिन जिस मज़बूती की अपेक्षा उनसे ऐसी भूमिकाओं में रहती है, वह नज़र नहीं आ सकी है। गजराज राव ऐसी भूमिकाओं में बंधते जा रहे हैं। सिमोन सिंह प्यारी भी रहीं और असरदार भी। निनाद कामत, ऋत्विक भौमिक, सृष्टि श्रीवास्तव आदि जंचे। शीबा चड्ढा, रजत कपूर, बरखा सिंह अपने बनावटी उच्चारण के चलते हल्के दिखे। गीत-संगीत भी हल्का ही रहा। हल्की तो अमेज़न प्राइम वीडियो पर आई यह पूरी फिल्म ही है जिसमें इसके नाम के उलट न तो सब बढ़िया है और न ही मजा मा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-06 October, 2022 on Amazon Prime Video
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Impressive review
thanks…
कमर्शियल सिनेमा में माधुरी दीक्षित जैसी प्रतिष्ठित अभिनेत्री का इस तरह लेस्बियन महिला का किरदार निभाना उनकी छवि पर शायद विपरीत प्रभाव डाल सकता था लेकिन उन्होने ये जोखिम लिया इसके लिए उन्हें दाद देनी चाहिए उनकी अभिनय प्रतिभा पर कतई शक नहीं किया जा सकता पर मजबूत कहानी और कुशल निर्देशन के अभाव में वह प्रभावहीन हो सकती हैं! पिछले कुछ समय से इस अलग तरह की कहानियों का प्रचलन बढ़ गया है लेकिन एक कसी हुई कहानी और निर्देशन जब ना हो बकौल दीपक जी कहन कच्चा है उथला है झीना है तो ना तो सब बढ़िया है ना ही मजा मा महसूस होगा
माधुरी जी , यकीं करना मुश्किल है