-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई की एक कन्स्ट्रक्शन साइट पर मज़दूरी कर रहे बाला की बीवी को किसी ने मार दिया है। बाला अपनी तीन महीने की बच्ची को लेकर गांव को भागा है। पुलिस उसके पीछे है क्योंकि इस हत्या का आरोप उसी पर है और यह भी कि वह असल में माओवादी दासरू है। वह झारखंड के अपने गांव में पहुंचता है तो पीछे-पीछे मुंबई पुलिस का अफसर रत्नाकर भी आ जाता है। रत्नाकर उसे ज़िंदा पकड़ना चाहता है ताकि उसे न्याय दिलवा सके लेकिन स्थानीय पुलिस को ‘ऊपर से’ दासरु को मारने का आदेश है।
अपने जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की जद्दोज़हद में नाकाम रहने के बाद नक्सलवाद या माओवाद की राह पर चल पड़े आदिवासियों की कहानियों को सिनेमा गाहे-बगाहे ढंग-बेढंग से दिखाता आया है। लेखक-निर्देशक देवाशीष मखीजा की यह फिल्म इस मायने में अलग है कि यह हिंसा को छोड़ दूर शहर में बेहद तंगहाली में प्रवासी बन कर मज़दूरी करने को अपनी नियति मान चुके इंसान की कहानी है। पुलिस पीछे पड़ती है लेकिन वह वापस जाकर एक बार उन ‘बड़े लोगों’ को बताना चाहता है कि उसका कोई कसूर नहीं है, वह रास्ता बदल चुका है, क्योंकि पहले वह गांव छोड़ कर नहीं, बंदूक छोड़ कर भागा था। मगर कोई उसकी सुने, तब न।
यह फिल्म एक बार फिर विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ रहे पूंजीपतियों और राजनेताओं के गठजोड़ को रेखांकित करती है और दिखाती है कि उनके आड़े आने वाले लोगों के अस्तित्व उनके लिए मायने नहीं रखते। लेकिन यह बड़ी सफाई से इस बहस में पड़ने से बचती है कि यदि आदिवासियों से उनकी ज़मीन ली जा रही है तो उससे होने वाले विकास से उनका नुकसान कैसे होगा या वह विकास उनका विनाश कैसे करेगा। फिल्म यह बताने या न बताने के फेर में भी नहीं पड़ती क्या विकास की इमारत हमेशा विनाश की नींव पर ही खड़ी होती है। दरअसल आदिवासियों के बारे में बात करने वालों का कमोबेश एक ही सुर रहा है कि उन्हें उनकी मूल जगह से हटाना यानी उन पर जुल्म करना। यह सुर राजनेताओं, लेखकों, एक्टिविस्टों, यहां तक कि उन्हें माओवाद के रास्ते पर धकेलने वालों का भी रहा है और यही सुर हमारे अधिकांश फिल्मकारों ने भी पकड़ा है। जबकि यह भी तो संभव है कि उनके वहां से हटने पर उन्हें, समाज को और देश को फायदा हो। तस्वीर का एकतरफा रुख ही क्यों? अंदरूनी इलाकों में बिजली, नेटवर्क, पानी, सड़क, कानून, व्यवस्था आदि की दुर्गति दिखा कर यह फिल्म एक चुभन तो पैदा करती है लेकिन यह प्रगति के पक्ष में कुछ न कह कर साफतौर पर एक ओर झुकी हुई भी लगती है।
देवाशीष ने जो लिखा है और उसे जिस तरह फिल्माया है, उससे एक अलग किस्म के सिनेमा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता साफ दिखती है। लंबे अर्से से देवाशीष ने प्रयोगधर्मी किस्म के सिनेमा को अपना गढ़ बनाया हुआ है और अपनी फिल्मों-‘अज्जी’, ‘भोंसले’ व अब ‘जोरम’ से उन्होंने अपना यह किला मज़बूत ही किया है। हालांकि ‘जोरम’ का मतलब फिल्म में खुल कर सामने नहीं आ पाता। वैसे भी फिल्म में बहुत सारे संवाद इतने खुरदुरे लहजे में बोले गए हैं कि सुनने के लिए कानों का पूरा ज़ोर लगाना पड़ता है। फिल्म की लोकेशन बेहद प्रभावी हैं और सिनेमैटोग्राफी इन लोकेशनों को फिल्म के किरदार में तब्दील करती है।
(रिव्यू-धीमे-धीमे कदम बढ़ाती ‘भोंसले’)
देवाशीष ने इस फिल्म में ऐसे कई सारे संवाद और दृश्य गढ़े हैं जो सिनेमाई शिल्प के प्रति उनकी गहरी समझ दिखाते हैं। किरदारों की विशेषताओं और संवादों से भी वह गहरा वार करते हैं। मनोज वाजपेयी एक बार फिर अपने चरम पर दिखे हैं। मौहम्मद ज़ीशान अय्यूब, तनिष्ठा चटर्जी, स्मिता तांबे, मेघा माथुर, धनीराम प्रजापति, काजल केशव व अन्य सभी कलाकारों ने अपने किरदारों को शिद्दत से जिया है।
एक तरफ को थोड़ा ज़्यादा झुकी होने के बावजूद यह फिल्म अपने ज़मीनी जुड़ाव के लिए सराही गई है, सराही जानी चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-08 December, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Impressive
एक पुराने लेकिन नए ढंग से किसी समुदाय पर बनी फ़िल्म अच्छी सभीत होगी क्यूंकि जो किरदार इस फ़िल्म. में हैँ वो तो वाकई अपना किरदार निभाने क़े लिए जी-जान लगा देते हैँ. ज़मीनी मुद्दों पर बनी फिल्मोंकी कोई ज़्यादा पब्लिसिटी नहीं होती है लेकिन वो अपने मक़सद में हमेशा कामयाब रहती हैँ…..
बहुत अच्छी समीक्षा। लगता है फॉर्मूले से बचकर बनाई गई अच्छी फिल्म है।
Well said Sir