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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-आपको बीमार करता है ‘एक विलेन रिटर्न्स’, बहुत बीमार

Deepak Dua by Deepak Dua
2022/07/29
in फिल्म/वेब रिव्यू
11
रिव्यू-आपको बीमार करता है ‘एक विलेन रिटर्न्स’, बहुत बीमार
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

मुंबई शहर में धड़ाधड़ कत्ल हो रहे हैं। लड़कियों के कत्ल। एक ही शख्स कर रहा है ये कत्ल। पुलिस परेशान, लोग हैरान। कौन है यह कातिल? क्यों कर रहा है वह ये कत्ल? क्या वह हीरो है? या फिर कोई विलेन?

चार लाइनों में यह कहानी आपको जितनी सीधी लग रही है न, उतनी सीधी यह फिल्म है नहीं। शहर में हो रही लड़कियों की सीरियल किलिंग की यह कहानी इस कदर पेचीदा है कि मुमकिन है कि इसे समझते-समझते आपके दिमाग के घोड़े थिएटर से कहीं दूर निकल जाएं और पीछे बचे आपके खाली दिमाग में शैतानी आइडिये आने लगें। लेकिन कसम खाइए, कि इस फिल्म को देखने के बाद आप कानून हाथ में नहीं लेंगे क्योंकि अभी तो आपको हिन्दी फिल्मों का ढेरों कचरा झेलना है। कभी-कभी तो लगता है कि ऐसी फिल्मों का आना अच्छा ही है। कचरे वाली फिल्में आएंगी, बदहज़मी करेंगी, तभी तो भीतर अच्छी फिल्मों की भूख जगेगी।

इस फिल्म को बनाने वाले मोहित सूरी ने बी.एस.एफ. (भट्ट स्कूल ऑफ फिल्म्स) में जो सीखा है और अब तक वह जो बनाते आए हैं, यह फिल्म भी ठीक वैसी है। इस स्कूल में सिखाया जाता है कि अपनी फिल्मों में कभी भी सीधे किरदार मत रखो। ‘हर इंसान के अंदर छुपे होते हैं कई इंसान’ की थ्योरी पर चलते हुए ऐसे उलझे हुए सायको किस्म के किरदार गढ़ो ताकि ये लोग अच्छा-बुरा, जैसा भी बर्ताव करें, उसे इंसानी फितरत बता कर उचित ठहराया जा सके। हर किरदार को या तो बिना मां-बाप का दिखाओ, या नाजायज़ बताओ या फिर उसके मां-बाप से उसका झगड़ा दिखा दो। ये किरदार एक-दूसरे से जब प्यार करें तो उस प्यार की महक दर्शकों को भले ही महसूस न हो, लेकिन इनका प्यार ‘मर जाएंगे या मार डालेंगे’ टाइप का हो। गाने पूरी फिल्म में हर दूसरे सीन के पीछे से आ-आकर बजते रहें भले ही उनकी ज़रूरत हो या न हो। थोड़ी-थोड़ी देर में बारिश करवाते रहो ताकि दर्शक का ध्यान भटकता रहे और वह कहानी की छतरी के छेदों से टपक रहे तर्कों के पानी पर फोकस ही न कर सके। संवाद भले ही फुटपाथ पर बैठ कर लिखे गए हों लेकिन उन्हें बोला ऐसे जाए जैसे जिल्ले इलाही रौब गांठ रहे हों। और हां, गलती से भी पूरी फिल्म में कोई कॉमेडी का सीन न आ जाए। ये दर्शक मुए थिएटरों में हंसने नहीं आते हैं, याद रहे।

तो जनाब, एक सीधी कहानी को बेहद पेचीदा, बहुत ही उलझे हुए ढंग से बयान करती इस फिल्म को देखते हुए कुछ समय तक आपके ज़ेहन में ज़रूर ये ख्याल आएंगे कि यह क्या हो रहा, कैसे हो रहा है, क्यों हो रहा है, लेकिन उसके बाद आप बिल्कुल निर्मोही हो जाएंगे। आपके भीतर का दार्शनिक जाग जाएगा और आप का बावरा मन ‘मैं थिएटर में क्यों बैठा हूं’, ‘मैंने टिकट ही क्यों खरीदी’ से होते-होते ‘मैंने इस संसार में जन्म ही क्यों लिया’ तक की यात्रा कर आएगा। जिस तरह से इस फिल्म में फिज़िक्स, कैमिस्ट्री, बायोलॉजी की टांगें तोड़ी गई हैं उसी तरह से आप के भीतर भी हिंसक प्रवृतियां जाग सकती हैं। लेकिन याद है न कि आपने कसम खाई है कि आप कानून हाथ में नहीं लेंगे…!

जॉन अब्राहम कुछ फिल्मों में इतने सूखे, इतने रूखे क्यों हो जाते हैं? पैसा कम मिला या डायरेक्टर ने बोला, पता नहीं। वैसे भी जॉन हों या अर्जुन कपूर, ये साधारण अभिनेता हैं, सो साधारण ही काम करेंगे। तारा सुतारिया, दिशा पटनी और बाकी सब लोग भी हल्के ही रहे। इस किस्म की हल्की स्क्रिप्ट वाली फिल्मों में भारी-भरकम कलाकार लेने भी नहीं चाहिएं, उन कलाकारों के साथ अन्याय हो जाता है। शाद रंधावा जैसा कमज़ोर कलाकार तो लिया सो लिया, ‘सत्या’ वाले जे.डी. चक्रवर्ती ने इस बेकार रोल में क्या देखा होगा?

निर्देशक मोहित सूरी का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश बनाने और बैकग्राउंड में शोर भरा म्यूज़िक भरवाने की तरफ रहा। स्क्रिप्ट जैसी फालतू चीज़ पर उन्होंने तवज्जो दी ही नहीं। हैरानी तो यह है कि मुंबई पुलिस में ए.सी.पी. और डी.एस.पी. एक साथ बताने वाली इस फिल्म में दो-दो स्क्रिप्ट सुपरवाइज़र भी हैं। वैसे, अगर आप इस तरह से लॉजिक भिड़ाने बैठेंगे तो हर सीन पर छाती पीटेंगे।

फिल्म इंडस्ट्री में अक्सर नैपोटिज़्म यानी भाई-भतीजावाद की बात होती है। लेकिन असली नैपोटिज़्म कलाकारों के स्तर पर नहीं, डायरेक्टर के स्तर पर हो रहा है। पिछले 17 साल से एक ही जैसी फिल्मों का घोल पिला रहे मोहित सूरी के इस किस्म के प्रोजेक्ट पर एकता कपूर और टी. सीरिज़ जैसे बड़े बैनर पैसे लगाने को तैयार हो जाते हैं तो यह भाई-भतीजावाद तो है ही, उससे भी बढ़ कर यह दुर्भाग्य है हिन्दी सिनेमा का। और हां, अगर आपको यह फिल्म देखने के बाद ज़रा-सा भी आनंद, मज़ा, मनोरंजन महसूस हो तो समझ जाइएगा कि कचरे वाली फिल्मों से धीरे-धीरे रिस रहे टार ने आपके भीतर घर बना लिया है। आप बीमार हो चुके हैं… बहुत बीमार…!

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-29 July, 2022

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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Comments 11

  1. Mukul tiwari says:
    3 years ago

    Film chahe jinni bakwas ho..lekin apke review ne jo kamal kia hai…jug jug jiyo deepak dua…wah wah .. brilliant …👏👏👏👏👏

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      शुक्रिया

      Reply
      • Dr Shirish Kashikar says:
        3 years ago

        Thanks for an honest review,you saved my hard-earned money and precious time

        Reply
        • CineYatra says:
          3 years ago

          शुक्रिया डॉक्टर साहब…

          Reply
  2. Dilip Kumar says:
    3 years ago

    हम जिएंगे साथी
    भट्ट की नाजायज फिल्में देखने के लिये
    😢
    😊

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      😂😂😂😂

      Reply
      • Mausam jaiswal says:
        3 years ago

        ऐसी अधकचड़ी फिल्मों की वजह से ही बॉलीवुड के दर्शकों को साउथ इंडस्ट्री ओवरटेक कर रही है।

        Reply
  3. Dr. Renu Goel says:
    3 years ago

    Ek dm lajwab

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      धन्यवाद

      Reply
  4. Rishabh Sharma says:
    3 years ago

    प्रिय दीपक दुआ जी, आप बेहतरीन तरीके से हरेक बारीकी के साथ समीक्षा करते हैं जो कि काबिल ए तारीफ़ है, आजकल की कचरा फिल्मों को देखने में बेशक मजा ना आता हो लेकिन असली आनंद आपकी समीक्षा पड़ने मे आता है! वैसे किसी भी फिल्म को देखने से पहले आपकी समीक्षा पढ़ लेना चाहिए thank you

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      धन्यवाद…

      Reply

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