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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-इस ‘डबल एक्स.एल.’ में है शॉर्ट साइज़ मनोरंजन

Deepak Dua by Deepak Dua
2022/11/04
in फिल्म/वेब रिव्यू
10
रिव्यू-इस ‘डबल एक्स.एल.’ में है शॉर्ट साइज़ मनोरंजन
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-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)

एक लड़की थी, थोड़ी मोटी-सी। मेरठ में वह रहती थी। स्पोर्ट्स चैनल पर प्रेज़ेंटर बनने के सपने वह देखा करती थी। नॉलेज भरपूर लेकिन मोटापे के चलते रिजेक्ट हो गई। एक दूसरी लड़की थी दिल्ली की। वह भी मोटी… ऊप्स, कुछ ज़्यादा हैल्दी कह लीजिए या फिर ओवरवेट। फैशन ब्रांड शुरू करना चाहती थी। ब्वॉय फ्रैंड ने धोखा दिया तो वह भी निराश। दोनों मिलीं और एक-दूसरे के सपने सच करने के लिए हाथ मिला लिया। अब हाथ मिलाया है तो सपने सच होंगे ही। किस तरह, यह इस फिल्म में दिखाया गया है।

शारीरिक व्याधियों, या कहें कि नॉर्मल से हट कर दिखने वाले गंजे, मोटे, नाटे लोगों की कहानियां हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा में जगह नहीं पाती हैं। लेकिन कुछ समय से ऐसे किरदारों और उनके सपनों पर भी बात होने लगी है। इस फिल्म की दोनों नायिकाएं भी ‘नॉर्मल’ नहीं हैं, डबल एक्स.एल. हैं। मेरठ की राजश्री तीस की होने जा रही है, मोटी है, शादी कर नहीं रही और चैनल पर जाना चाहती है। दिल्ली की सायरा खन्ना के भीतर अपने मोटापे के कारण आत्मविश्वास की कमी है। ये दोनों मिलती हैं तो एक-दूसरे की ताकत बनने लगती हैं, एक-दूसरे के सपनों का संबल बनने लगती हैं और ‘नॉर्मल’ की उस परिभाषा को चुनौती देने लगती हैं जो समाज ने न जाने कब और कैसे बना दी।

कह सकते हैं कि कहानी अच्छी है। बेशक है, मगर इसे एक स्क्रिप्ट के तौर पर फैलाते समय मुदस्सर अज़ीज़ व साशा सिंह के हाथ-पांव बुरी तरह से फूलते नज़र आए हैं। असल में हिन्दी सिनेमा लिखने-बनाने वालों की यही सबसे बड़ी कमी है कि या तो वे हमेशा मसालेदार चीज़ों की तलाश में रहते हैं या फिर अच्छी-भली पौष्टिक कहानी को मसालों में लपेटना शुरू कर देते हैं। यहां भी इन्होंने यही रायता फैलाया है। पहले तो दो लाइन की कहानी को दो घंटे का आकार देते समय इन्हें यही नहीं सूझा कि इसमें क्या-क्या डालें, सो इन्होंने घटनाएं कम और उपदेश ज़्यादा पिलाए हैं। इससे हुआ यह है कि हर थोड़ी देर बाद कोई न कोई किरदार पर्दे पर आकर निबंध सुनाने लग जाता है। भूमिका बांधते-बांधते फिल्म दर्शकों को बांधना भूल जाए तो नुकसान फिल्म और दर्शक, दोनों का होता है। और स्क्रिप्ट भी कैसी, सहूलियत भरी कि यहां से सीधे चलेंगे, इक मोड़ आएगा, वहां से मुड़ेंगे तो सामने मंज़िल दिख जाएगी। अरे भई, इसे प्रपोज़ल वाली राईटिंग कहते हैं, खुद से बहने वाली कहानी नहीं।

दूसरी दिक्कत लेखकों के साथ यह हुई कि इन्होंने किरदारों को रोचक बनाने के चक्कर में उनकी मूल भावना ही बदल डाली। मसलन, राजश्री की मां उस पर शादी के लिए दबाव डालती है और पिता व दादी उसका समर्थन करते हैं लेकिन यही पिता व दादी दब्बू हैं और मां के सामने कुछ नहीं बोल पाते, क्यों भई? और ये लोग मेरठ में रह कर कनपुरिया एक्सेंट में क्यों बोल रहे हैं? सायरा अपने ब्वॉय फ्रैंड के साथ क्यों है या वह इसके साथ क्या कर रहा है, आपको महसूस ही नहीं होगा। इन्हें एक फोटोग्राफर मिला तो उसे दक्षिण भारतीय क्यों दिखाया गया? बेचारा, टूटी-फूटी हिन्दी-अंग्रेज़ी बोलता रहा और दर्शक ठगा महसूस करता रहा। ये लोग लंदन गए तो वहां इनकी मदद करने आया ज़ोरावर इतना छिछोरा क्यों है, यह भी बता देते भई। और पहली बात तो यह कि ये लोग लंदन ही क्यों गए? वहां से भी सब्सिडी मिलने लगी क्या? अब ऐसी राईटिंग में आप अच्छे, दमदार संवादों की उम्मीद तो खुद ही छोड़ दीजिए।

कुछ एक औसत दर्जे की फिल्मों में सहायक निर्देशक रहने के बाद पिछले साल अपारशक्ति खुराना को लेकर ‘हेलमैट’ जैसी खराब फिल्म लेकर आए सतराम रमानी ने इस फिल्म में भले ही यू.पी. से दिल्ली और लंदन की छलांग लगाई हो लेकिन उनके निर्देशन में एक स्थाई किस्म का औसतपन साफ झलकता रहा। अपनी अगली फिल्म चुनने से पहले उन्हें उसकी स्क्रिप्ट को कस-धो लेना चाहिए।

हुमा कुरैशी ने वज़न बढ़ाने के साथ-साथ अपने काम में भी आत्मविश्वास दिखाया। सोनाक्षी सिन्हा ठीक-ठाक सा ही काम करती हैं, कर गईं। ज़हीर इकबाल साधारण रहे और साऊथ से आए महत राघवेंद्र थोड़े ज़्यादा असरदार। कंवलजीत सिंह, शुभा खोटे जैसे वरिष्ठ कलाकार हाशिए पर दिखे। अलका कौशल व अन्य ठीक रहे। गीत-संगीत अच्छा रहा। खासतौर से अंत में आया एक गीत। फिल्म का अंत अच्छा है। आखिरी के दस मिनट में फिल्म संभली है। लेकिन संभलने के बाद भी अगर लेखक-निर्देशक उपदेश ही पिलाते दिखें तो समझ जाइए कि न उन्हें खुद पर भरोसा है, न अपनी बनाई फिल्म पर।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-04 November, 2022 in theaters.

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: alka kaushalDouble XLDouble XL reviewhuma qureshikanwaljit singhmahat raghavendraMudassar Azizsasha singhSatram Ramanishubha khotesonakshi sinhazaheer iqbal
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Comments 10

  1. Dr. Renu Goel says:
    5 months ago

    Movie ke dam nhi h

    Reply
  2. Dilip Kumar says:
    5 months ago

    Xl😊

    Reply
  3. gurdeep singh says:
    5 months ago

    AAP LIKHTE BHAUT BADIYA HAE.

    Reply
    • CineYatra says:
      5 months ago

      धन्यवाद…

      Reply
  4. Ajay mishra says:
    5 months ago

    Nice

    Reply
    • CineYatra says:
      5 months ago

      Thanks…

      Reply
  5. B S BHARDWAJ says:
    5 months ago

    काफी शानदार लिखा है आपने 👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻

    Reply
    • CineYatra says:
      5 months ago

      धन्यवाद

      Reply
  6. Rishabh Sharma says:
    5 months ago

    शायद डबल एक्स एल शीर्षक के हिसाब से कहानी को विस्तार दिए गया है पर बेवजह फैलाए जाने की वजह से उसे समेटना मुश्किल होता गया जबकि अधिकतम की भी एक सीमा होती है जो शायद आखिरी वक्त पर समझा आया होगा! ये कहानी शायद बहुत सुंदर हो सकती थी लेकिन …. नायिकाओं का चुनाव सही है शीर्षक के हिसाब से पर एक अच्छी स्क्रिप्ट के अभाव मे सब बेअसर है एक औसत फिल्म की अच्छी! समीक्षा लिखने पर दीपक जी को सलाम

    Reply
    • CineYatra says:
      5 months ago

      आभार

      Reply

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