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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू–हल्की-फुल्की सी, ठंडी कुल्फी सी ‘दिल बेचारा’

Deepak Dua by Deepak Dua
2020/07/25
in फिल्म/वेब रिव्यू
0
रिव्यू–हल्की-फुल्की सी, ठंडी कुल्फी सी ‘दिल बेचारा’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

झारखंड का शहर जमशेदपुर। किज़ी बासु नाम की लड़की। कैंसर है उसे। हर जगह ऑक्सीज़न का सिलैंडर उठाए फिरती है। उदास रहती है। कब्रिस्तान में जाकर अनजान मृतकों के रिश्तेदारों के गले लग कर उन्हें सांत्वना देती है। इसी शहर में रहता है मैनी यानी इमैन्युअल राजकुमार जूनियर। इसे भी कैंसर है। एक टांग नकली है फिर भी बेहद ज़िंदादिल, खुशमिज़ाज, मसखरा किस्म का लड़का है। ये दोनों मिलते हैं। मैनी किज़ी से फ्लर्ट करता है। किज़ी धीरे-धीरे उसे अपने करीब आने देती है। इनमें प्यार भी हो जाता है मगर एक दिन…!

असल में थिएटर के लिए बनी और ओ.टी.टी. पर आने को मजबूर हो चुकी फिल्मों की कतार में शामिल यह फिल्म डिज़्नी हॉटस्टार पर आई है जहां इसे मुफ्त में देखा जा सकता है। मर रहे लोगों की कहानियों के ज़रिए जीना सिखाने वाली फिल्में पहले भी आती रही हैं। लेकिन हमारे फिल्मकारों की तमाम कोशिशों के बावजूद इन फिल्मों में से विलायती महक नहीं जाती फिर चाहे वह ‘लुटेरा’ हो, ‘गुज़ारिश’ या यह वाली ‘दिल बेचारा’। हालांकि हृषिकेश मुखर्जी वाली ‘आनंद’ अकेली इन सब पर भारी पड़ जाती है।

फिल्म की कहानी एक अमेरिकी उपन्यास (जिस पर अमेरिका में एक फिल्म भी बन चुकी है), से ली गई है। शशांक खेतान और सुप्रतिम सेनगुप्ता ने इसे हिन्दी के मैदान में उगाते समय परिवार, दोस्त, भोजपुरी, कॉमेडी, गीत-संगीत जैसे लटकों-झटकों को डाला है जिनके चलते यह ज़्यादा पराई नहीं लगती। कई सीन अच्छे लिखे गए हैं और संवाद बहुत जगहों पर मन को छूते हैं। ‘कहते हैं प्यार नींद की तरह होता है, धीरे-धीरे आता है’ जैसे संवाद अब कहां सुनाई देते हैं। बतौर निर्देशक मुकेश छाबड़ा (जो खुद एक्टर हैं और इंडस्टी के नामी कास्टिंग डायरेक्टर भी) की यह पहली फिल्म है लेकिन उनके काम में मैच्योरिटी दिखाई देती है। उन्हें सीन बनाना आता है। कब्रिस्तान में किसी कब्र पर पड़ा सूखा हुआ फूल उठा कर एक का दूजे को प्रपोज़ करना प्यारा लगता है। फिल्म जीने-मरने की फिलॉसफी की बातें भी करती है। ‘क्या किसी के जाने के बाद हंस के जिया जा सकता है?’ ‘जन्म कब लेना है, मरना कब है, हम डिसाइड नहीं कर सकते। लेकिन कैसे जीना है, हम डिसाइड कर सकते हैं’ जैसे संवादों से कुछ सीखना चाहें तो फिल्म आपको रोकती नहीं है।

सुशांत अपने हर रोल को हमेशा जस्टिफाई करते रहे। मैनी की खुशमिज़ाजी, उसके मसखरेपन, उसके दर्द को उन्होंने बखूबी समझा और पर्दे पर उतारा। लेकिन कई जगह उनके संवाद बहुत तेज़ रफ्तार में आकर निकल गए और निर्देशक उन्हें रोक नहीं पाया। कुछ एक फिल्मों में आ चुकीं संजना सांघी बतौर नायिका अपनी इस पहली फिल्म से उम्मीदें जगाती हैं। सच तो यह है कि सुशांत और उनकी जोड़ी इतनी प्यारी लगती है कि पर्दे पर ये अकेले नहीं, एक साथ ही अच्छे लगते हैं। मैनी के दोस्त जे.पी. के किरदार में साहिल वैद को और बड़ा किरदार मिलना चाहिए था। उनका सामने होना चेहरे पर मुस्कुराहट लाता है। शाश्वत चटर्जी, स्वास्तिका मुखर्जी, सुनित टंडन प्रभावी रहे और एक सीन में आकर सैफ अली खान अच्छे लगे।

फिल्म की लोकेशंस बहुत बढ़िया हैं। उन्हें निखार कर सामने लाने का काम सत्यजित पांडे ने अपने कैमरे से बखूबी किया। सच यह भी है कि इस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी इसे ‘दर्शनीय’ बनाती है। ए.आर. रहमान का संगीत बहुत लुभावना भले न लगे लेकिन सुहाना ज़रूर लगता है। बहुत दिन बाद किसी फिल्म के सारे के सारे गाने एक ही गीतकार की कलम से निकले नज़र आए। अमिताभ भट्टाचार्य ने सचमुच कई जगह अपने शब्दों का जादू चलाया है। ‘मैं जाड़ों के महीने की तरह, और तुम हो पश्मीने की तरह’ जैसे कविताई शब्द इसमें काफी सारे हैं।

लेकिन यह कोई महान फिल्म नहीं है। यह बहुत शानदार फिल्म नहीं है। थिएटर में लगती तो टिकट-खिड़की पर टूट पड़ने वाली फिल्म नहीं है। वजह है इसमें गहराइयों और उंचाइयों की कमी से उपजी वो नीरसता जो इसे एक अच्छी फिल्म की तरफ तो ले जाती है लेकिन एक दिलचस्प फिल्म बनने से रोकती है। वजह है इसकी एडिटिंग। कभी तो लगता है कि किसी सीक्वेंस को थोड़ा और फैलने से अचानक रोक दिया गया है तो कभी लगता है कि इस जगह पर एडिटिंग थोड़ी और चुस्त होनी चाहिए थी। वजह है इसके किरदारों को पूरे पंख न मिल पाना। नायक-नायिका के अलावा बाकी के किरदारों को आधा-अधूरा ही रखा गया जिस वजह से मंजे हुए कलाकारों के फिल्म में होने के बावजूद दर्शक उनके अभिनय की गहराइयां देखने से वंचित रह गए। और हां, हर अंधे के कंधे झुके नहीं होते, निर्देशकों को यह समझना चाहिए।

कुल मिला कर, इसी फिल्म के एक गीत के शब्दों में कहूं तो यह एक हल्की-फुल्की सी, ठंडी कुल्फी सी फिल्म है। ठंडी-सी, मीठी-सी फिल्में पसंद हों, तो ही देखें। और हां, जल्द देख लें। सुशांत की याद हल्की पड़ गई तो यह पिघल जाएगी।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-24 July, 2020

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: Dil Bechara reviewdisney hotstarmukesh chhabrasahil vaidsaif ali khansanjana sanghisaswata chatterjeesushant singh rajputswastika mukherjee
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