-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
छत्तीसगढ़ का एक छोटा-सा शहर। यहां हर कोई हर किसी को जानता है। लेकिन बिल्लू यानी प्रेम कुमार यादव को अपनी खुद की पहचान बनानी है। सो, पिता की तरह जंगल विभाग की चपरासीगिरी न करके वह शहर से बाहर वाली सड़क पर पान का खोखा लगा लेता है। सड़क वीरान है और बिल्लू का धंधा भी। पर तभी सामने वाले इकलौते घर में रहने आए इंजीनियर साहब की जवान होती लड़की के चक्कर में शहर भर के लौंडे-लपाड़ों की भीड़ वहां लगने लगती है। बिल्लू का धंधा चमकने लगता है और उसके अरमान भी। पहचान तो खैर, उसकी बन ही जाती है।
तमाम किस्म के ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म आने से इतना तो हुआ है कि कहानियां अब शहरी सड़कों-इमारतों से निकल कर दूर-दराज के गांव-कस्बों की गलियों तक भी जाने लगी हैं। वरना किसे पता था कि छत्तीसगढ़ में कोई मुंगेली जिला और उसमें कोई लोरमी नाम का शहर भी है। किसे उम्मीद थी कि किसी अपूर्व धर बड़गैयां नाम के लेखक-निर्देशक की फिल्म को सारेगामा वाले प्रोड्यूस कर देंगे और उसे नेटफ्लिक्स वाले दिखा भी देंगे। और फिल्म भी कैसी जिसका ‘हीरो’ एक पनवाड़ी होगा और जिसकी हीरोइन पूरी फिल्म में एक शब्द भी न बोलेगी। न-न, गूंगी नहीं है वो। बड़े शहर से आई बेहद खूबसूरत लड़की है। फर्राटे से स्कूटी चलाती है, हॉफ-पैंट पहनती है। शहर भर के लफंडरों की वह चाहत है। हर कोई उसे देखना-पाना चाहता है। लेकिन उससे कोई कुछ नहीं पूछता कि उसके मन में क्या है। हालांकि गूंगी नहीं है वो।
गली-मौहल्ले, स्कूल-कॉलेज की लड़कियों पर जबरन अपनी चाहत थोपने, उनका पीछा करने, उनके घर के सामने अड्डा जमाने, उन्हें आई लव यू वाले कार्ड देने के किस्से अपने समाज में आम हैं। यह फिल्म उन्हीं किस्सों का एक कोलाज बना कर दिखाती है। ऐसे किस्से जिनमें लड़कों को तो फंतासियों की इजाज़त है लेकिन लड़की का पक्ष कोई जानना तक नहीं चाहता। इस फिल्म में लड़की यानी रिंकू ननोरिया की चुप्पी से निर्देशक अपूर्व धर कदाचित इसी तरफ इशारा करते हैं। शहर भर के शोहदे जिस आदमी के घर के सामने दिन-रात आ जमते हों, उस पिता की बेबसी और पीड़ा भी दिखाती है यह फिल्म और उन शोहदों के बीच का आपसी कंपीटिशन भी। निर्देशक चाहते तो गुंडागर्दी भी दिखा सकते थे लेकिन ऐसा न करके उन्होंने समझदारी बरती और इसीलिए फिल्म देखते समय इन शोहदों के प्रति नफरत का भाव नहीं उपजता बल्कि यह जानने की उत्सुकता बनी रहती है कि आगे क्या होगा। बतौर लेखक यह अपूर्व की सफलता है।
बबलू बने जितेंद्र कुमार इस किस्म के किरदारों में माहिर हो चुके हैं। उनके काम से अमोल पालेकर वाली महक आती है। रिंकू बनीं रितिका का सयंमित भाव-प्रदर्शन उन्हें आकर्षण का केंद्र बनाए रखता है। योगेंद्र टिक्कू, आलम खान, अश्विनी कुमार आदि दम भर साथ निभाते हैं। ‘सोमू डैडी’ बने भुवन अरोड़ा जंचते हैं और कुछ ही देर के लिए आने वाले भगवान तिवारी गजब लगते हैं। गीत-संगीत थोड़ा कम होता तो फिल्म और कसी हुई बनती।
फिल्म के एक सीन में पुलिस इंस्पैक्टर भदौरिया बबलू से पूछते हैं-घर में मां-बहन नहीं है क्या? जवाब मिलता है-नहीं है। फिल्म इशारा करती है कि अगर बबलू के घर में सचमुच मां-बहन होतीं तो क्या तब भी वह अपनी दुकान चलाने की खातिर एक शरीफ परिवार के मकान के सामने यूं अड्डेबाजी होने देता? फिल्म देखते समय इस अड्डेबाजी की चुभन दर्शक से भी यही सवाल पूछती है-घर में मां-बहन नहीं है क्या?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-19 June, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)