-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
पुलिस की गिरफ्त से भाग कर एक आतंकवादी किसी फ्लैट में जा छुपा है। उसके पास पुलिस वाले की बंदूक है। फ्लैट के अंदर उसके साथ है एक अकेली जवान खूबसूरत औरत और बाहर पुलिस के डेरे में उस औरत का पति जिसका कहना है कि यदि वक्त पर उसकी बीवी को दवाई नहीं दी गई तो वह कुछ भी कर सकती है। आतंकवादी अपने साथी को बुलाने, गाड़ी भेजने, पैसे देने जैसी मांगें कर रहा है कि तभी वह औरत ‘कुछ’ करने लगती है। क्या कर रही है वह? क्या कर सकती है वह? उसके इस ‘करने’ के पीछे क्या राज़ है? कौन करवा रहा है यह सब?
इस किस्म की थ्रिलर फिल्मों की खासियत होती है इसकी कहानी में उपजने वाले ये सवाल और लगातार चलती सच व झूठ की वह पकड़म-पकड़ाई जो उधर पर्दे पर किरदारों को चैन नहीं लेने देती और इधर थिएटर में बैठे दर्शक को भी बेचैन करती रहती है। इस नज़र से देखें तो यह फिल्म अपने मकसद में सफल रही है। इसके हर किरदार का अपना सच है। आतंकवादी की कहानी अलग है और पुलिस की अलग। पति का सच अलग है और पत्नी का अलग। किस का सच, सच है और किस का झूठ, यह समझने के लिए दर्शक इस फिल्म को एक भी सीन छोड़े बिना दम साधे देखता रहे तो यह इसकी सफलता ही है।
लेकिन यह भी सच है कि फिल्म में उस दर्जे की कसावट नहीं है जो इसे एक क्लासिक थ्रिलर बना दे। अकेले घर में एक औरत और एक अपराधी की कहानी पर 1969 में आई यश चोपड़ा की राजेश खन्ना वाली ‘इत्तेफाक’ जैसा पैनापन उसके 2017 में आए अभय चोपड़ा के सिद्धार्थ मल्होत्रा वाले रीमेक में भी नहीं था। यह फिल्म भी उसी पैनेपन की कमी से जूझती नज़र आती है। पिछले साल अभिषेक बच्चन वाली ‘बिग बुल’ लिख-बना चुके कूकी गुलाटी की कहानी अच्छी है लेकिन इसकी स्क्रिप्ट का हल्कापन सामने पर्दे पर बार-बार उभर कर आता है। बिल्डिंग के सामने पुलिस का डेरा और घेरा बनावटी लगते हैं, पति का अकेले पैसे के इंतज़ाम में जाना बचकाना लगता है। न उसके साथ पुलिस है, न वह मीडिया जिसे फिल्म हर कदम पर बावला बताने और दिखाने पर आमादा है। वैसे मीडिया की यह बावली छवि बनाई भी खुद मीडिया ने ही है, फिल्म तो उसे सिर्फ दिखा भर रही है। कुछ एक सीन का अंदाज़ा पहले से ही होने लगता है। संवाद भी दो-एक को छोड़ हल्के हैं।
एक बड़ी कमी इस फिल्म के किरदारों को लेकर भी है। आर. माधवन और दर्शन कुमार जैसे काबिल अभिनेताओं को अंडरप्ले करते देख कर महसूस होता है कि कैसे उन्हें कमज़ोर किरदारों में जकड़ दिया गया। बावजूद इसके ये दोनों ही अपने काम को अच्छे-से अंजाम देते हैं। माधवन को देखना तो आंखों को सुकून-सा देता है। वैसे बहुत सारे दर्शकों को फिल्म में असली सुकून तो खुशाली कुमार को देख कर मिलेगा जिन्होंने अपनी संपदाओं और भंगिमाओं से पर्दे पर ‘खुशहाली’ बिखेरी है। आतंकवादी बने अपारशक्ति खुराना काफी दमदार रहे। गाने कम हैं, जो हैं सही हैं। शुरूआत में आए एक गाने से निर्देशक ने बड़ी समझदारी से कहानी को बताने-बढ़ाने का काम किया है। यही समझदारी वह पूरी फिल्म में बनाए रखते तो खूब वाहवाही लूटते।
सस्पैंस, थ्रिलर जैसे स्वाद वाली फिल्में देखने के शौकीनों को यह फिल्म भाएगी, लुभाएगी और मज़ा भी देगी। अंत में जब झूठ के पर्दे हटेंगे और सच सामने आएंगे तो यह फिल्म असर भी छोड़ जाएगी। फिल्मकार ने हालांकि सीक्वेल के बारे में कोई इशारा नहीं किया है लेकिन यदि इसका सीक्वेल बने तो वह इससे ज़्यादा दिलचस्प हो सकता है। टी सीरिज़ वाले चाहें तो हम से संपर्क करें।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-23 September, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बढ़िया समीक्षा! जिस तरह से एक एक पहलू को आप अपने ज्ञान चक्षु से देखते हैं वही आपकी सफलता का राज है! अगर कोई सस्पेंस थ्रिलर आखिर तक दर्शको को बांधे रखती है और दिमाग पर अपना असर छोड़ती हैं तो समझिए कि निर्देशक का उद्देश्य सफल रहा! और दर्शको के साथ धोखा नहीं हुआ! बाकी खुशाली कुमार की”” खुशहाली “” से आपकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है 😜 कुल मिलाकर सीक्वल बनाने का आपका आइडिया पहले भाग के लिए प्रेरित करता है! धन्यवाद दीपक दुआ जी
शुक्रिया…