-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
1942 का साल। हरियाणा के सोनीपत में पंडित जवाहर लाल नेहरू की सभा में खूब भीड़ जमा है। वहां से गुज़र रहे पंडित लखमी चंद उनसे मिलने के लिए बढ़ते हैं तो पुलिस उन्हें रोक लेती है। लखमी चंद थोड़ी दूर जाकर ऐसी तान छेड़ते हैं कि भीड़ नेहरू जी को छोड़ कर उनकी तरफ चल देती है। नेहरू जी पूछते हैं-कौन है यह? जवाब मिलता है-हरियाणा का शेक्सपियर, सांग का बादशाह-पंडित लखमी चंद।
पंडित लखमी चंद जिन्हें सूर्य कवि कहा गया, हरियाणा के शेक्सपियर और कालिदास तक का दर्जा दिया गया। उनसे पहले व बाद में हरियाणवी लोक गीत-संगीत की ‘रागिणी’ व ‘सांग’ परंपरा में हज़ारों कलाकारों के आने के बावजूद आज भी सबसे पहले उन्हीं का नाम लिया जाता है। 1903 से 1945 तक मात्र 42 साल जीने वाले लखमी चंद ने हरियाणवी संस्कृति को अपने गीत-संगीत के द्वारा आगे ले जाने में इस कदर योगदान दिया कि उनके जीवन की कहानी को किसी एक फिल्म में बांध पाना लगभग असंभव है। इसीलिए अभिनेता-निर्देशक यशपाल शर्मा ने इस हरियाणवी फिल्म को दो भागों में बनाने का फैसला किया। यह वाली फिल्म ‘दादा लखमी’ पहला भाग है जो नवंबर, 2022 में थिएटरों में रिलीज़ होने के अलावा देश-विदेश में दसियों पुरस्कार पा चुकी है जिनमें भारत सरकार द्वारा दिया गया सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी शामिल है। अब यह फिल्म हरियाणवी मनोरंजन परोसने वाले प्रतिष्ठित मंच ‘स्टेज’ ऐप पर आई है।
फिल्म की शुरुआत दादा लखमी के निधन से होती है और फिर कहानी हमें उनके जन्म से लेकर जवानी के उन दिनों तक लेकर जाती है जब उन्होंने हर जगह नाम कमाना शुरू कर दिया था। इस दौरान हम मोटे तौर पर लखमी चंद के दो रूप देखते हैं-एक तो वह बालक जो गीत-संगीत का ऐसा दीवाना है कि जब मौका देखता है, घर छोड़ कर भाग जाता है और दूसरा वह युवक जो भरपूर साधना और रियाज़ करके खुद को इस काबिल बनाता है कि लोग उसके दीवाने हो सकें और उसके प्रतिद्वंद्वी उससे ईर्ष्या कर सकें।
बतौर लेखक यशपाल शर्मा और राजू मान ने पंडित लखमी चंद के जीवन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण हिस्सों को अपनी कहानी का हिस्सा बनाया है। उनके बचपन की शरारतों, जिज्ञासाओं, ज़िद और गीत-संगीत की दिशा में आगे बढ़ने की ललक को कई अच्छे सीक्वेंस व किरदारों के ज़रिए रोचक बनाया गया है। फिल्म की भाषा हरियाणवी होते हुए भी सहज है और हिन्दी समझने वाले दर्शकों को आसानी से समझ आएगी। साथ ही हरियाणवी संस्कृति, परिवेश, खानपान, खेलकूद, पहनावे आदि पर भी भरपूर ध्यान दिया गया है। पंडित लखमी चंद ने अपनी यात्रा की शुरुआत भले ही नाच-गाने से की लेकिन जल्द ही उन्होंने आध्यात्मिकता और दार्शनिकता को भी अपने गीतों में समाहित कर लिया था। यह फिल्म उस दर्शन की गहराई में भी जाती है। बहुत सारे संवाद, दृश्य व गीत ऐसे हैं जिन्हें सुन कर अमृत मिलता है, आंखें नम होती हैं और गाल गीले। लेखकों के साथ-साथ यह निर्देशक यशपाल शर्मा की भी जीत है। उनके निर्देशन में जो गहरी दृष्टि है, वह उनकी अब तक की साधना का परिचय देती है।
अभिनय पक्ष लगभग सभी कलाकारों का उम्दा रहा है। गुरु मानसिंह बने राजेंद्र गुप्ता बेमिसाल रहे। मेघना मलिक, हितेश शर्मा, योगेश वत्स, मुकेश मुसाफिर, सतीश कश्यप समेत सभी प्रमुख कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। यशपाल शर्मा काफी कम दिखे लेकिन अपने अभिनय का चरम दिखा गए। फिल्म के अगले भाग में उनकी भूमिका विस्तार देखने को मिल सकता है जिसका इंतज़ार उत्सुकता से किया जा रहा है। गीत-संगीत इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है जो कई बार भीतर तक हिला देता है। कैमरे ने कई जगह कमाल के दृश्य परोसे हैं। लोकेशन व सैट विश्वसनीय लगे। अलबत्ता संपादन में कहीं-कहीं कसावट की कमी दिखी। कुछ एक सीन बेवजह खिंचे हुए भी लगे। दो-एक जगह अनपढ़ किरदारों द्वारा बीसवीं सदी के आरंभ में अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तेमाल भी खटका। उन दिनों देश में चल रही क्रांति की लहर का ज़िक्र भी कहीं होता तो प्रासंगिकता और बढ़ सकती थी।
यशपाल शर्मा की यह फिल्म असल में फर्ज़ निभाने का काम करती है। हरियाणा के सूर्य कवि के जीवन पर हरियाणा का एक अभिनेता खुद निर्माता-निर्देशक बन कर एक हरियाणवी फिल्म बनाए तो वह पैसा कमाने की नहीं, फर्ज निभाने की कवायद है, यह समझ लीजिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-08 November, 2022 in theaters; 01 November, 2023 on Stage App.
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बिल्कुल सही लिखा है आपने वाकई इस फिल्म में यशपाल शर्मा ने शानदार अभिनय किया है।
ये हुआ न जबरदस्त एक जबरदस्त सब्जेक्ट पर…. सांग…. इस शब्द को देखकर न जाने कितने भारतियों ने गूगल तो किया ही दुआ जी ने अपने रिव्यु में ये सांग शब्द क्यों लिख दिया… कहीं इनसे Song को Saang लिखने की गलती तो नहीं हो गयी। ये सांग उनकी समझ में तो पढ़ते हे समझ में आ गया होगा जो हरयाणा, पश्चमी उत्तर प्रदेश और आस पास के क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं… मैंने भी बचपन के दिनों में अपने गाँव के करीब दूसरे गाँव में एक बार अपने मरहूम दादा जी के साथ जाकर “सांग” का लुत्फ़ लिया था…. वाकई लोक कला का एक उत्तम उदहारण है सांग और रागनी भी ।
बेशक ये फिल्म एक क्षेत्रीय (हरियाणवी) है लेकिन इसका लुत्फ़ हर कोई ले सकता है.. ऐसी फिल्मे हमें याद दिलाती हैं कि हम क्या थे और हमारी धरोधर क्या है और आज हम क्या खो चुके हैं और क्या क्या खोने वाले हैं…. वही फिल्म एक सफल फिम्ल होती है जो दर्शकों को ये सोचने के लिए मज़बूर कर दे कि हम अपनी धरोधर और विरासत को कैसे बचाये…. चूँकि फिल्म बनाने वालो का ताल्लुक हरियाणा से है तो उन्होंने फिल्म के ज़रिये अतीत के एक सच्चे पन्ने को उजागर किया है। ..
फिल्म के लिए ४ स्टार तो बनते ही हैं.
Deepak Bhai Mai abhibhoot aapki pratikriya padh kar aapko film achhi lagi ye jaan kar kitni Khushi mili hai aap andaza nahi laga sakte, aaj ke daur me is afra tafri bhag daud me agar sahaj , thahraw aur apni lay pakdi hui film jisne film ke sare maap dando ko toda , agar achhi lag Jaye to is se badi Khushi ki baat aur kya ho sakti hai , heroine nahi, romance nahi, comedy nahi, action nahi, double meaning dialogues nahi, fir bhi agar is film ne aapka dhyan kheencha to Mai ise apni aaj ki uplabdhi maanta hun, sau baar shukriya ….
बहुत-बहुत धन्यवाद यशपाल भाई साहब, हमें ऐसा सार्थक सिनेमा देने के लिए…
Shukriya to aapka Hai Sir…jo ek aise subject par film banaai jis subject ke baare mei koi soch bhi nahi sakta…. Dhanyvaad
Umdaa Yashpal dada