-दीपक दुआ…
करीब दो साल पहले की बात है जब अभिनेत्री शिल्पा शैट्टी के पति राज कुंद्रा को पोर्नोग्राफी यानी नंगी-गंदी फिल्में बनाने के आरोप में पकड़ कर विचाराधीन कैदी के तौर पर मुंबई की आर्थर रोड जेल में भेजा गया था। उन्हें लग रहा था कि चार-पांच दिन में उनकी ज़मानत हो जाएगी लेकिन उन्हें बेल मिली थी 63 दिन के बाद। ये दिन उन जैसे अरबपति आदमी ने आम कैदियों के साथ एक बेहद गंदी और तंग जेल में कैसे बिताए, उसी को इस फिल्म में दिखाया गया है।
सवाल उठ सकता है कि कुंद्रा ने यह फिल्म भला क्यों बनाई होगी? क्या खुद को पाक-साफ घोषित करने के लिए? फिल्म देखिए तो पता चलता है कि ऐसा नहीं है। उन्होंने सिर्फ जेल के अपने अनुभवों को साझा किया है-पूरी ईमानदारी के साथ, पूरी गंदगी के साथ। जी हां, भारतीय जेलें कैसी होती हैं और वहां का माहौल कैसा होता है, इसके बारे में न ही जाना जाए तो अच्छा। यही कारण है कि यह फिल्म देखने में भले ही कहीं-कहीं ब्लैक-कॉमेडी का अहसास देती हो मगर यह असल में जेल के अंदर के उन अंधेरे पक्षों को उभार कर दिखाती है जिनमें कायदे से एक भी इंसान न रहे सके लेकिन 50 लोगों की जगह में ढाई सौ इंसान रहते हैं, बदतर ज़िंदगी जीते हुए।
इस फिल्म को देखते हुए यह भी पता चलता है कि हमारी जेलों में बड़ी तादाद में ऐसे लोग बंद हैं जिन्हें कभी का रिहा हो जाना चाहिए था लेकिन कभी जानकारी, कभी मदद तो कभी सिस्टम की इच्छाशक्ति के अभाव के चलते वे अंदर सड़ रहे हैं। फिल्म बताती है कि जेल से बाहर आने के बाद राज कुंद्रा देश भर के विचाराधीन कैदियों के भले और मदद के लिए कोशिशें कर रहे हैं। हां, फिल्म यह नहीं बताती कि उन पर लगे आरोपों में कितना सच (या झूठ) था और उन्होंने सचमुच कोई अपराध किया था या नहीं। यह फिल्म जेल के भीतर होने वाले कई सारे ‘कुकर्मों’ के बारे में भी कुछ नहीं बोलती। यह चुप्पी इसे कमज़ोर बनाती है।
जेल से शुरू होकर जेल में ही खत्म होती इस फिल्म की कहानी में कुंद्रा ने अपने अनुभव पिरोए हैं लेकिन विक्रम भट्टी (भट्ट नहीं) के लेखन में बहुत रूखापन, सूखापन, एकरसता और हल्कापन भी है। इसीलिए यह दो-एक बार को छोड़ कर कहीं कुछ खास असर नहीं छोड़ पाती। शाहनवाज़ अली का निर्देशन साधारण है। संपादन बहुत ढीला है और सीन रिपीट होते रहने से बोर करते हैं। राज कुंद्रा ने खुद पर बनी फिल्म में ‘यू टी 69’ यानी विचाराधीन कैदी नंबर 69 का अपना किरदार खुद ही निभाया है और बड़े ही कायदे से निभाया है। वह चाहें तो अपने ढेर सारे काम-धंधों के साथ-साथ एक्टिंग में भी हाथ आजमा सकते हैं। फिल्म के तकनीकी पक्ष हल्के हैं।
हल्की तो असल में यह पूरी फिल्म ही है। हां, इसे बनाया हल्की नीयत से नहीं गया है। इस फिल्म में जेलों के भीतर की नारकीय दशा देख कर लोग बुरे कर्म करने से बचें, प्रशासन जेल-सुधार के बारे में सोचे और कैदियों को भी इंसान मानने की सोच को बल मिले तो काफी होगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-03 November, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Puri film shishe ki tarf saf prosi gai h apke review me
👏👏👏👏
Great review and agreed with all. Jail ki haalat sudharne k liye yahan ‘Mrs. Bedi’ jaise Officers ki Zarurat hai tabhi koi sudhar ho sakta hai warna System hai System ke tareeke se he chalta rahega….. Agar ye bola jaaye ki puri film sirf ek scene ki hai to koi buraai na hogi…..Aajkal film Sympathy Game ka roll bhi ada kar rahi hai aur partitions between human to human also.
15 Star kaafi hain….