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Home फिल्म/वेब रिव्यू

रिव्यू-सिनेमा की दीवानगी का उत्सव है ‘छेल्लो शो’

Deepak Dua by Deepak Dua
2022/10/13
in फिल्म/वेब रिव्यू
2
रिव्यू-सिनेमा की दीवानगी का उत्सव है ‘छेल्लो शो’
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-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)

गुजरात का एक छोटा-सा गांव। इतना छोटा कि वहां के बच्चे पढ़ने के लिए भी ट्रेन से नज़दीक के कस्बे में जाते हैं। यहीं रहता है नौ बरस का समय जो पढ़ाई और मस्ती के अलावा रेलवे स्टेशन पर अपने पिता की दुकान पर चाय बेचने में मदद करता है। एक दिन पिता पूरे परिवार को कस्बे के सिनेमाघर में एक फिल्म दिखाने ले जाते हैं। सब लोग फिल्म देखते हैं लेकिन समय उन प्रकाश-किरणों को देखता है जो प्रोजेक्टर से निकल कर पर्दे की तरफ जा रही होती हैं। और समय को प्यार हो जाता है-थिएटर से, सिनेमा से, रोशनी से, कहानियों से।

ऐसे बहुत सारे लोगों के बारे में हमने पढ़ा, सुना, देखा है जिन्होंने बचपन में, छुटपन में, लड़कपन में पहली बार सिनेमा देखा और उन्हें थिएटर के अंधेरे में पर्दे से छन कर आती रोशनियों में जीवन के लिए धड़कन महसूस होने लगी। हमारे-आपके बीच भी ऐसे बहुतेरे लोग होंगे जिन पर सिनेमा की दीवानगी ऐसी छाई कि फिर उम्र भर उतरी ही नहीं। ऐसे ही लोगों में से ही कई फिल्म पत्रकार, लेखक, निर्देशक, अदाकार भी बने। यह फिल्म ऐसे ही एक बच्चे की कहानी दिखाती है जो सिनेमा का शैदाई बना तो इस कदर बना कि रोज़ाना स्कूल छोड़ कर सिनेमा में बैठा रहता। घर से लाया खाना वहां प्रोजेक्टर चलाने वाले को खिलाता और बदले में मुफ्त का शो देखता। लेकिन एक दिन उस थिएटर में ‘छेल्लो शो’ यानी ‘आखिरी शो’ हुआ और उसके बाद…!

गुजराती भाषा की यह फिल्म इस बरस भारत की तरफ से ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ में भेजी गई है। इसके चलते इसे अत्यधिक चर्चा मिली और अब यह देश भर के सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई है। गुजराती न जानने वालों के लिए अंग्रेज़ी में सब-टाइटिल दिए हुए हैं लेकिन इस फिल्म को देखना शुरू कीजिए तो बहुत जल्दी ये सब-टाइटिल किनारे हो जाते हैं और फिल्म सीधे अपनी सिनेमाई ज़ुबान में आपको सब समझाने लगती है। वैसे भी सिनेमा के दीवानों के लिए भाषा भला कब बाधा बनी है?

हमेशा से कुछ हट के वाला सिनेमा बनाते आए पेन नलिन (नलिन कुमार पंड्या) की लिखी-बनाई यह फिल्म असल में एक आत्मकथात्मक कहानी दिखाती है जिसमें नलिन ने अपने बचपन के उन क्षणों को कैद करने की कोशिश की है जब सिनेमा की दीवानगी खुद उन पर छा रही थी। गांव से कस्बे में पढ़ने जाना, स्कूल छोड़ कर थिएटर में जमे रहना, प्रोजेक्टर वाले से दोस्ती और खाने के बदले मुफ्त के शो देखना समेत इस फिल्म के अन्य कई सीक्वेंस नलिन ने अपनी ज़िंदगी से निकाले हैं जिन्हें देख कर कह सकते हैं कि उनकी ज़िंदगी बहुत ही सिनेमाई रही है। गौर करें तो यह ‘सिनेमाईपन’ हम सब ज़िंदगी में दिखेगा। बस, फर्क यह है कि हम जैसे लोग सिनेमा देखते हैं और नलिन जैसे दीवाने सिनेमा दिखाते हैं।

यह फिल्म हमें उस सफर पर ले जाती है जहां कोई बच्चा दुस्साहस करता है, किसी असंभव-से लगने वाले सपने को देखता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है। समय और उसके हमउम्र दोस्तों की हरकतों में आपको अपना बचपन दिख सकता है। वे हरकतें, वे कारनामें याद आ सकते हैं जो आपने किए तो ज़रूर लेकिन कभी किसी को बता नहीं पाए। इसकी कहानी की सरलता आपको छूती है और इसकी पटकथा का प्रवाह आपको अपने साथ बहा लिए जाता है। संवाद ज़रूरत के मुताबिक कभी सहज तो कभी चुटीले हैं।

फिल्म की एक बड़ी खासियत इसके किरदारों का चरित्र-चित्रण है। हर किरदार को कुछ विशेषताएं दी गई हैं और वह उन पर लगातार टिका रहता है। खासतौर से समय के किरदार में जिस तरह से मस्ती, बेफिक्री, ज़िम्मेदारी, उद्दंडता, जिज्ञासा और सर्मपण का समावेश है, वह उसके प्रति हमारे प्यार को बढ़ाता है। समय और उसके पिता के बीच का अनबोला रिश्ता दिल छूता है। भविन रबारी ने समय की भूमिका में लाजवाब काम किया है। भावेश श्रीमाली, दिपेन रावल, ऋचा मीणा आदि अन्य सभी कलाकारों का काम भी उम्दा है।

पेन नलिन अपने निर्देशन से पर्दे पर जादू रचते हैं। गांव से लेकर शहर तक ढेरों दृश्यों में वह असर छोड़ते हैं। फिल्म का अंत लुभावना है और भावुक करता है। कहीं-कहीं फिल्म का एकदम से धीमा होकर प्रतीकों के ज़रिए अपनी बात कहना भले ही इसे ‘क्लास’ दर्शकों के मतलब का बनाता है लेकिन इससे इसका असर कम नहीं होता। यह फिल्म असल में सिनेमा को जानने, समझने, पढ़ने, गुढ़ने, उसमें तैरने, डूबने, उतराने वालों के मतलब की है। उन लोगों के मतलब की है जिन्हें थिएटर के अंदर की खुशबू पसंद है, पर्दे से छन कर आती रोशनी में जिन्हें जीवन की धड़कनें सुनाई देती हैं।

(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)

Release Date-14 October, 2022 in theatres

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Tags: bhavesh shrimalibhavin rabarichello showchellow show reviewdeepen ravalgujarati filmOscarspan nalinricha meenashoban makwathe last film showthe last film show review
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Comments 2

  1. Rakesh Chaturvedi Om says:
    3 years ago

    वाह! सच में दीवानगी का उत्सव है ये फ़िल्म… इस फ़िल्म की समीक्षा को इन ख़ूबसूरत शब्दों में बाॅंध पाना आपके ही बस की बात थी💖💖🎥🎥❤️❤️

    Reply
    • CineYatra says:
      3 years ago

      धन्यवाद भाई साहब…

      Reply

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