-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
करवटें ले रहा है हिन्दी सिनेमा। बेचैन है, व्याकुल है, कुछ नया कहने को आतुर है। पर क्या हमारे दर्शक इस ‘नए’ को स्वीकारने के लिए तैयार हैं?
चंडीगढ़ का गबरू पहलवाल मनु मुंजाल बॉडी बिल्डर है, जिम चलाता है। जिम के ही एक हिस्से में अंबाला से आई ज़ुंबा डांस सिखाने वाली मानवी बराड़ (जिसे वह खुद ‘बरार’ बोलती है) को देख कर वह फिसलता है और एक दिन दोनों के बीच ‘सब कुछ’ हो जाता है। दिक्कत इसके बाद शुरू होती है जब मानवी बताती है कि वह असल में ‘मनु’ पैदा हुई थी लेकिन बचपन से ही उसके अंदर एक लड़की थी और एक दिन वह ऑपरेशन करवा कर मनु से मानवी बन गई। ज़ाहिर है कि ‘मर्द-दिमाग’ वाले मनु मुंजाल से यह सच्चाई सहन नहीं होती। उससे ही क्या, किसी से भी नहीं होती। सब मानवी के पीछे पड़ जाते हैं। तब…
सबसे बड़ा राज़ तो खोल ही दिया, बाकी का तो रहने दें। असल में इस फिल्म का रिव्यू करते समय यह मुश्किल हर किसी को आएगी कि कहानी का टर्निंग प्वाईंट बताया जाए या नहीं। लेकिन फिर लगा कि जब इस किस्म की दुस्साहसी कहानी पर फिल्म बन सकती है तो उसे देखने जा रहे दुस्साहसी दर्शकों को भी पता होना चाहिए कि आखिर इस फिल्म में नया क्या है। खैर…
ट्रांस जेंडर होते हैं, यह एक सच है। कुदरत ऐसे लोगों को भी धरती पर भेजती है जो होते लड़के या लड़की हैं लेकिन उनके शौक, आदतें दूसरे जेंडर की तरह होती हैं। इनमें से इक्का-दुक्का ही होते हैं जो कुदरत की गलती को ऑपरेशन से ठीक करवा कर अपने ‘असली’ जेंडर में चले जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इन लोगों के इस सच को हमारा समाज, या खुद उन लोगों का परिवार किस हद तक स्वीकार कर पाया है? ऐसे हर शख्स को लानतें, दुत्कार, अपमान भले ही मिलता हो, स्वीकार्यता तो उन्हें उनके अपने ही जैसे लोगों (जिन्हें एल.जी.बी.टी. समुदाय कहा जाने लगा है) के बीच ही मिल पाती है। तो ऐसे में यदि मुख्यधारा की कोई फिल्म ऐसे वर्जित विषय पर आकर बात कर रही है और बड़े, चहेते सितारों की मौजूदगी में उस कहानी को ‘पारिवारिक’ बना कर दिखाने की कोशिश कर रही है तो क्या उसकी सराहना नहीं होनी चाहिए?
तो पहली सराहना इस फिल्म को लिखने वाले अभिषेक कपूर, सुप्रतीक सेन और तुषार परांजपे की जिन्होंने ऐसी कहानी को मेनस्ट्रीम सिनेमा में फिट करने की हिम्मत दिखाई। दूसरी सराहना निर्देशक अभिषेक कपूर की जिन्होंने इस फिल्म को इस तरह से बनाया कि यह मनोरंजन भी देती है और अपनी बात भी कह जाती है। एंटरटेनमैंट की मीठी टॉफी में लपेट कर गंभीर मैसेज वाली कड़वी गोली खिलाने का तरीका ही दर्शकों को इस किस्म के सिनेमा के करीब लेकर आएगा।
आयुष्मान खुराना जैसे आम दर्शकों के चहेते नायक भी इस किस्म की भूमिकाओं में आकर दुस्साहस ही दिखाते हैं। पंजाबी युवक के किरदार में आयुष्मान कुदरती तौर पर फिट रहे हैं। अच्छी बात यह भी है कि जहां-जहां उन्होंने कैड़ी वाली पंजाबी बोली वहां-वहां पर्दे पर हिन्दी में सब-टाइटल आए हैं। सिनेमा वाले सचमुच सुधर रहे हैं भई। वाणी कपूर लंबे समय बाद ‘एक्टिंग’ करती नज़र आईं और प्रभावी भी रहीं। कंवलजीत सिंह हर बार की तरह बेहद असरदार रहे। आयुष्मान की बहनों के रोल में सावन और तान्या अबरोल जंचीं। फिल्म के गाने और उन पर बनाया सचिन-जिगर का संगीत मज़ेदार रहा।
यह फिल्म बहुत महान नहीं बन पाई है। कहीं-कहीं लड़खड़ाती भी है। आम दर्शक इसे परिवार के साथ बैठ कर नहीं देख पाएंगे। फिल्म की थीम, कई दृश्य और बहुत सारी बातें ऐसी हैं जो फैमिली के साथ बैठ कर नहीं पचाई जा सकतीं। लेकिन सिनेमा के ज़रिए कुछ नया चाहने की आरज़ू रखने वाले इसे अगर न देखें और कल को जब वही घिसा-पिटा सिनेमा थोक में बन कर आने लगे तो उन्हें शिकायत नहीं होनी चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-10 December, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Nyc review
Thanks…
Good review
Thanks…