-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
वह राम गोपाल वर्मा ही थे जिन्होंने सड़क किनारे रामसे ब्रदर्स के खोमचों में मिलने वाले हॉरर के मसाले को आकर्षक पैकिंग में और शानदार स्टाइल में बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में बेचना शुरु किया था। लेकिन ऊंची दुकान में चमकते रैपर के नीचे अगर बार-बार वही बासी माल निकलने लगे तो कोई भी उकता सकता है। यह बात रामू और उनकी फिल्मों में पैसा लगाने वाले या तो समझना नहीं चाहते या फिर उन्हें यह अंधविश्वास है कि कम से कम इस बार तो रामू एक अच्छी फिल्म बना ही लेंगे, कम से कम इस बार तो उनकी फिल्म में कुछ नया, कुछ ऐसा होगा जिसे दर्शक दिल से स्वीकारेंगे। मगर अफसोस, एक बार फिर रामू इस मोर्चे पर नाकाम हुए हैं। बल्कि सच तो यह है कि यह फिल्म राम गोपाल वर्मा की बेहद घटिया फिल्मों में से एक है।
एक ऐसा शानदार घर जिसमें रहने वाला परिवार अचानक लापता हो गया था। अब इसमें रहने आया है एक नया परिवार। पति, पत्नी, दो बच्चे और आकर्षक कपड़े पहनने वाली इन बच्चों की बुआ। इस मकान में रह रहे एक भूत से बच्ची की दोस्ती हो जाती है लेकिन बाकी लोग जब तक उसकी बात पर यकीन करते हैं, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
कहानी में कहीं, कोई नयापन नहीं है। लेकिन यह बात भी हजम हो सकती थी अगर इस पर ऐसी पटकथा तैयार की जाती जिसमें दर्शकों को बांधने लायक कोई मसाला होता। वैसे भी हॉरर फिल्म देखने सिर्फ वही दर्शक जाते हैं जिन्हें पर्दे पर डर का मसाला देख कर डरने में मजा आता है। एक हॉरर फिल्म में एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा या कुछ और हो न हो, रोमांच ज़रूर होना चाहिए, वे झटके ज़रूर होने चाहिएं जो बार-बार आकर दर्शकों को डराते-दहलाते रहें। लेकिन इस फिल्म में कहने भर को भी ऐसा कुछ नहीं है। अपनी शुरुआत के पांच मिनट के बाद ही यह फिल्म बोर करने लगती है, पर्दे पर हो रही हरकतों पर हंसी आने लगती है और मात्र डेढ़ घंटे की फिल्म भी टिक कर देखने की बजाय दर्शक बार-बार पहलू बदलने लगते हैं तो यकीनन वह फिल्म अंदर से खोखली ही होगी।
जे.डी. चक्रवर्ती, मनीषा कोईराला, मधु शालिनी या बाल-कलाकारों के अभिनय की तारीफ की जा सकती है लेकिन बकवास कहानी और कमज़ोर किरदारों के चलते ऐसा करने का दिल नहीं करता। रामू ने ही हॉरर फिल्मों में दहलाने वाले बैकग्राउंड म्यूज़िक का चलन शुरु किया था लेकिन यहां संदीप चौटा कमज़ोर रहे हैं। और ज़रा रुकिए, खामियों का सिलसिला अभी थमा नहीं है। कैमरे के अजीबोगरीब एंगल्स के प्रति रामू का मोह यहां भी नज़र आता है और अब यह मोह सनकपन की हद तक पहुंच चुका है। रामू ने इधर कहीं कहा कि वह ‘भूत 3’ भी बनाना चाहते हैं लेकिन इस फिल्म को देख कर लगता है कोई जाए और उन्हें समझाए कि प्लीज़… अब रहम करो!
अपनी रेटिंग-एक स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-12 October, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)