-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
डियर ओमंग कुमार जी, आपने ‘मैरी कॉम’ जैसी बढ़िया बायोपिक बनाई तो कुछ-कुछ फिल्मी होने के बावजूद हमने उसकी तारीफ की कि उम्दा कंटैंट है और फिल्म बहुत कुछ कहती है। फिल्म को कामयाबी मिली और तारीफों के साथ पुरस्कार भी। फिर आपने ‘सरबजीत’ बनाई तो थोड़े ज्यादा फिल्मी हो गए और फिल्म को सरबजीत की बजाय उसकी बहन की कहानी बना कर रख दिया। फिर भी भावनाओं के ज्वार में हमने उसकी तारीफ कर डाली। हालांकि इस बार न फिल्म को वैसी कामयाबी मिली और न ही तारीफें। इन दो बायोपिक के बाद जब आपने ‘भूमि’ बनानी शुरू की तो याद है हम लोगों ने कितने सवाल किए थे? और आगरा में तो मैंने आपसे यह भी पूछा था कि आपकी फिल्म के स्क्रिप्ट राईटर ने अब तक सिर्फ कॉमेडी शोज़ लिखे हैं, उनसे ऐसे संजीदा विषय पर फिल्म क्यों लिखवा रहे हैं? लीजिए, आशंका सच निकली न! न राज शांडिल्य कायदे की पटकथा लिख पाए और न ही आप सलीके का निर्देशन दे पाए।
अरे हुजूर, अब इस तरह की और इस तरह से फिल्में नहीं बना करती हैं। लड़की के साथ रेप हुआ और वह आकर बाथरूम में सिर पर पानी डाले जा रही है, यह सीन बरसों पहले अपना महत्व और उष्मा खो चुका है। कानून कुछ नहीं कर सका तो बाप चल पड़ा बलात्कारियों से बदला लेने वाला टॉपिक भी अब इस कदर घिस चुका है कि अब इसे देख कर न तो हमारी भावनाएं जोर मारती हैं और न ही हमें उससे हमदर्दी होती है। रेप जैसा संजीदा विषय पकड़ने के बाद आप फिल्मी लोग इस कदर फैल कर फिल्मी-विल्मी हो जाते हो कि खुद आपके लिए उसे समेटना भारी पड़ जाता है। और आप तो निकल लेते हो फिल्म बना कर, झेलना हमें पड़ जाता है।
इस फिल्म के निर्माता संदीप सिंह की ही लिखी इस कहानी को सुन कर संजय दत्त को अगर यह लगा हो कि यह फिल्म उनकी वापसी के लिए उपयुक्त रहेगी, तो इसमें उनका कसूर नहीं कहा जा सकता। दो लाइन में सुनें तो कहानी बुरी नहीं है। दिक्कत इसे पटकथा के रूप में फैलाने में आई है और उससे कहीं ज्यादा इसे पर्दे पर उतारने में जिसके लिए ओमंग, आप ही कसूरवार हैं। पड़ोस में बवाल हो रहा है और तमाम पड़ोसी इस कदर लुल्ल बन कर खड़े हैं। आगरा वाले तो इस फिल्म को देख कर उबल सकते हैं जिसमें उन्हें एकदम संवेदनाशून्य और ठंडा दिखाया गया है। और आगरा के उस पेठे की मिठाई वाले ने आपका क्या बिगाड़ा था जिसकी दुकान में आपने शूटिंग की, बोर्ड दिखा कर उसका प्रचार भी किया और फिर उसी के बेटे को आपने फिल्म में बलात्कारी दिखा डाला! और हां, यह फिल्मी पुलिस, फिल्मी कोर्ट-रूम ड्रामा… उफ्फ, यक्क… अब इनसे हमें बदहजमी होती है साहब। ऊपर से बदन दिखाती हसीनाओं के आइटम नंबर बुरक कर तो आपने खुद ही अपनी मंशा जता दी कि आप विषय को लेकर गंभीर नहीं हैं बल्कि आपका इरादा हमारी आंखों को गर्माते रहने का भी है।
संजू मंझे हुए एक्टर हैं लेकिन आप उनके कद के लायक किरदार ही नहीं गढ़ पाए। उनके अलावा सिर्फ शरद केलकर को देखना अच्छा लगा। अदिति राव हैदरी हों, शेखर सुमन या कोई और, सब हल्के लगे। हल्की तो खैर आपकी यह पूरी फिल्म ही है। काश कि आप इसे फिल्मी आसमान में उड़ाने की बजाय यथार्थ की ज़मीन पर टिकाए रखते। और हां, अगर किसी बंदे को अपनी फिल्म के लिए कोई कायदे का नाम तक न मिले और उसे नायिका के किरदार के नाम पर फिल्म का नाम रखना पड़े तो भी हमारे कान खड़े हो जाते हैं कि उसके पास हमें देने को ज़्यादा कुछ है नहीं।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
Release Date-22 September, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)