-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
स्पाइडर मैन की कहानी याद है न आपको! एक लड़के को किसी मकड़ी ने काटा जिसके बाद उसके अंदर मकड़ी के गुण-दोष आ गए और वह बन गया स्पाइडर मैन यानी मकड़-मानव। बस यही हुआ है इस फिल्म के नायक भास्कर के साथ। वह दिल्ली से अरुणाचल प्रदेश पहुंचा है जंगल के बीच से एक सड़क बनाने का ठेका लेकर। ज़ाहिर है कि इसके लिए कटेंगे ढेरों पेड़। लेकिन यहां उसे काट लेता है एक भेड़िया और वह बन जाता है भेड़िया-मानव जिसके बाद उसके अंदर भेड़िये की क्वालिटीज़ आ जाती हैं और हर पूनम की रात को तो वह पूरी तरह से भेड़िये में बदल जाता है। लेकिन कहते हैं न कि बड़ी ताकत के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी आती है। तो क्या यह भेड़िया-मानव इस बड़ी ताकत के साथ मिली बड़ी ज़िम्मेदारी को उठा पाया? और क्या हर सुपरमैन की तरह उसे भी करना पड़ा कोई बड़ा त्याग?
निरेन भट्ट की कहानी हटके किस्म की है। अपने स्वार्थ के नाम पर जंगलों को काटने की बात उठाने के साथ-साथ यह फिल्म उत्तर-पूर्व के लोगों में ‘बाहर’ से आने वालों के प्रति उपजे अविश्वास की बात भी करती है। फिल्म यह भी दिखाती-बताती है कि किस तरह से शहरी लोग विकास का चमकीला सपना दिखा कर गांव-जंगल में बसे लोगों को ललचाते हैं और उन्हें भी भ्रष्ट होने को प्रेरित करते हैं। लेकिन साथ ही यह फिल्म ऐसे लोगों को कुदरती न्याय के ज़रिए सबक दिलाने की बात भी करती है। भेड़िये का काटना हो या लोक-आस्थाओं का दिखाना, फिल्म इन्हें रूपक की तरह इस्तेमाल करते हुए साफ संदेश देती है कि इंसान जब-जब कुदरत को नष्ट करेगा, कुदरत उसे नष्ट करने से नहीं चूकेगी। अंत में गांव वालों का भेड़िये के सामने झुकने का दृश्य न सिर्फ भावुक करता है बल्कि बताता है कि मनुष्य को खुद के प्रकृति से अधिक ताकतवर होने का घमंड छोड़ना होगा तभी वह बचा रह पाएगा। यह दृश्य ‘कांतारा’ के अंत का भी अहसास कराता है। लगे हाथ यह फिल्म उत्तर-पूर्व के लोगों को बाकी भारतवासियों की नज़र में ‘अलग’ या ‘चाईनीज़’ समझने की सोच पर भी वार करती है।
ऊपर का पैरा पढ़ कर यह मत सोचिएगा कि यह कोई सीरियस फिल्म होगी जिसमें प्रकृति को बचाने के उपदेश पिलाए गए होंगे। उपदेश हैं इस फिल्म में और भेड़िये की कहानी के ज़रिए थोड़ा-सा हॉरर भी, लेकिन इन सब को बहुत ही ‘यंग फ्लेवर’ देते हुए कॉमेडी का लेप लगा कर परोसा गया है ताकि दर्शकों की नई पीढ़ी इसे आसानी से जज़्ब कर सके। हिन्दी के दर्शकों के साथ यह समस्या तो है ही न कि उन्हें बढ़िया और गंभीर किस्म का कंटैंट तो चाहिए लेकिन वह गंभीरता ओढ़ा हुआ नहीं होना चाहिए। निर्देशक अमर कौशिक अपनी फिल्म ‘स्त्री’ में हॉरर संग कॉमेडी का सफल प्रयोग कर चुके हैं। इस बार भी उन्होंने कॉमेडी को ही प्रमुखता दी है। अब यह अलग बात है कि इस फिल्म की अधिकतर कॉमेडी सहज न होकर जबरन घुसेड़ी गई और कहीं-कहीं तो ओछी भी लगती है। लेकिन हिन्दी वाले इसी ओछेपन को हंस कर स्वीकारते आए हैं, इस बार भी स्वीकार लेंगे।
फिल्म की बड़ी खूबी अमर कौशिक का कसा हुआ निर्देशन है। उन्होंने गति बनाए रखी है और दिलचस्पी जगाए रखी है। लेकिन इन सबसे ऊपर यह फिल्म अपने कलाकारों की सधी हुई एक्टिंग के लिए देखी जानी चाहिए। वरुण धवन ने अपने आलोचकों के मुंह बंद करने लायक काम किया है। अभिषेक बैनर्जी सपाट चेहरे और तपाक संवादों से हंसाने का काम बखूबी कर गए। दीपक डोबरियाल जैसे अनुभवी और एकदम नए आए पालिन काबक भी खूब जंचे। कृति सैनन साधारण रहीं। कुछ तो उनका किरदार ठंडा था, कुछ उनकी लुक। सौरभ शुक्ला, शरद केलकर कुछ पल में भी असरदार रहे। गीत-संगीत अच्छा है और कहानी के रंग-बिरंगे मिज़ाज को सहारा देता है। खास तो है इसका बैकग्राउंड म्यूज़िक जो अद्भुत वी.एफ.एक्स. के साथ मिल कर दृश्यों के असर को चरम देता है। लोकेशन जितनी खूबसूरत हैं, कैमरा उसे उतनी ही खूबसूरती से कैद भी करता है। फिल्म 3-डी में भी है और अच्छे इफैक्ट देती है।
इंसान और कुदरत में समझौता था कि दोनों एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। इंसान ने जब-जब यह समझौता तोड़ा है, कुदरत ने भी बदला लिया है। यह फिल्म उसी बदले को दिखाती है-थोड़ा डरा कर, थोड़ा हंसा कर।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-25 November, 2022 in theaters.
(अपील-सिनेमाघरों में फिल्म देखते समय अपने मोबाइल की आवाज़ या रोशनी से दूसरों को डिस्टर्ब न करें।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
वाह 💖
धन्यवाद
एकदम हटकर और लाजवाब
धन्यवाद
भेड़िया फ़िल्म में नायक के भेड़िए बन जाने से महेश भट्ट की फिल्म जुनून की याद आ जाती है! बेशक सिवाय इस बात के दोनो कहानियों में कोई भी समानता नहीं है! प्रकृति को बचाने का फिल्म एक अच्छा संदेश देती है! लेकिन यही बात दीपक जी के शब्दों में गहरा असर छोड़ती है “”इंसान जब जब कुदरत को नष्ट करेगा , कुदरत उसे नष्ट करने से नहीं चूकेगी! कॉमेडी के नाम पर दर्शको को फुहड़ता की आदत हो गई है तो वही परोसा जा रहा है! पर नया देखने की चाह रखने वाले और वरुण धवन के बढ़िया अभिनय के लिए फिल्म देखनी चाहिए धन्यवाद
शुक्रिया…